प्रकृति के आगे प्रकृति खामोश है
जब सोये तो समय था |
जागे तो समय नहीं है ||
जिंदगी जो कल थी |
वह आज नहीं है ||
न अब अपनों की भीड़ है |
इन्सानियत की गलियाँ वीरान है ||
ममताओं के कूप सूख चुके हैं |
स्नेह की हरियालियाँ बियाबान हैं ||
हर तरफ बस तिकड़मों का जाल है |
धनकुबेरों की भीड़ में मानवता कंगाल है ||
दिलों में बस हवस की आँधियाँ ही बहती हैं |
हड़पने की चाह में नरता बेहाल है ||
हर तरफ बस रोष ही रोष है |
न किसी में शान्ति व संतोष है ||
दिलों में चलता है तृष्णाओं का ताण्डव |
प्रकृति के आगे प्रकृति खामोश है ||||
दीपाली कालरा