प्रकृति की सीख
एक दिवस प्रातः दिनकर बोला मुझसे यह बात
मिट जाती है रात घनी भी जब भी होता है प्रभात
जो अस्त हुआ है फिर उगेगा अपने ही संघर्षों से
आभा पटल पर नित्य चमकेगा अपने ही कर्मों से
आज नहीं तो कल तू भी अपनी पहचान बनाएगा
कठिनाइयों से लड़कर जो तू आगे बढ़ता जाएगा
बैठा तू फिर क्यों सोचे है उठ चल इक विकल्प लिए
मंजिल तक नहीं रूकना है ऐसा दृढ़ संकल्प लिए।।
कल कल बहने वाली नदियां बस इतना ही कहती है
नित चलने वालों से मंजिल दूर नहीं फिर रहती है
आड़ी तिरछी राहें देखों फिर भी चलती जाती हूं
पर्वत का भी चीर कर सीना मैं अपनी राह बनाती हूं
प्रत्यक्ष कठिन कितनी भी डगर हो मैं तो बढ़ती जाती हूं
सागर में जा मिलकर आखिर मंजिल अपनी पाती हूं
बैठा तू फिर क्यों सोचे है उठ चल इक विकल्प लिए
मंजिल तक नहीं रूकना है ऐसा दृढ़ संकल्प लिए।।