(( प्याला ))
हर रोज़ हम मुलाकात का वादा कर दिल को बहलाते हैं
रोज़ दिल मिलने की आरज़ू में बच्चो की तरह ज़िद्द में रूठ जाता है
शाम होते ही आँखों मे एक सैलाब उमड़ता है
तेरी जुदाई का ये कैसे दर्द हैं जो मुझे रुला जाता है
ये इश्क़ का मौसम है जहाँ सिर्फ तन्हाई रहती है
कुदरत का मौसम तो बदल जाता है
कागज की कश्ती सा है इश्क़ तेरा
ज़रा सैलाब क्या आया वो डूब जाता है
मैखाने का शराब भी मेरे गम को मिटा न पाया
ज़्यो प्याला उठाओ , वो टूट जाता है
गैरो को कहा पता थी कमजोरियां मेरी
तू अपना था इसलिए दर्द दिये जाता है
फ़रियाद मेरे इश्क़ की तड़पायेगी तुम्हे भी एक दिन
वो कहाँ से वापस आएगा ,जो दुनिया से चला जाता है