प्यार है इस ज़ीस्त का आधार सा
प्यार है इस ज़ीस्त का आधार सा
प्यार बिन है आदमी बेकार सा
हर क़दम पर मुश्क़िलें ही मुश्क़िलें
इसलिए हर आदमी बेज़ार सा
कल बहुत मज़बूर था वो क्या कहूँ
हो गया हूँ आज मैं लाचार सा
हौसले से चल रहे मंज़िल की ओर
रास्ता हर ओर है दुश्वार सा
सिर्फ़ ग़लती ये हुई ख़ामोश थे
फ़िर बहाना मिल गया तकरार का
बाद में इन्कार ने तोड़ा है दिल
पर इशारा क्यों लगा इक़रार सा
उम्र आहों को मेरी जो मिल गई
हो गया दिल इश्क़ में बीमार सा
अब क़दम आगे ज़रा उठते नहीं
रास्ता है ख़ार की दीवार सा
अश्क़ के हथियार ने ‘आनन्द’ को
रख दिया है काटकर के तार सा
शब्दार्थ:- बेज़ार=अप्रसन्न/खिन्न/नाराज़/विमुख
– डॉ आनन्द किशोर