प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो : संजना
साक्षात्कार
प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो : संजना
नीरज साइमन जेम्स से संजना साइमन तक की यात्रा करने वाली ट्रांसजेंडर वुमेन संजना की संघर्ष यात्रा आज के समय की महत्त्वपूर्ण घटना है। वर्तमान में जब नीरज पूरी तरह से संजना में परिवर्तित हो चुकी हैं और संजना के रूप में अपनी आगे की ज़िन्दगी हँसी-खुशी और प्रगति के साथ बिता रही हैं, ऐसे में उनके जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं पर ‘वाङ्मय’ पत्रिका के संपादक डॉ. फ़ीरोज़ खान ने उनसे महत्त्वपूर्ण बातचीत की है। प्रस्तुत है इसी बातचीत के कुछ अंश…
आप अपने बारे में कुछ बताइए।
मैं संजना साइमन हूं।मैं जन्म से ही महिला हूं लेकिन मेरा जन्म एक पुरुष शरीर में हुआ था जिस कारणवश मेरे अभिभावक ने मुझे नीरज साइमन जेम्स नाम दिया था। मैं उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में एक उच्च मध्यम वर्ग में पैदा हुई। मेरे पिता इंडियन रेलवे में काम करते थे। माता जी कॉन्वेंट स्कूल में हिंदी की शिक्षिका के पद पर थीं। मेरे दो बड़े भाई हैं जो मुझसे बहुत प्यार करते हैं। दोनों ही विवाहित हैं। दोनों भाभियां भी सर्विस करती हैं। मैं बचपन से ही बहुत आत्मविश्वासी, निडर और प्रतिभाशाली रही। मेरा पढ़ाई में विशेष मन लगता था। एम. कॉम. पूरा करने के बाद मैंने इलाहाबाद से बी.एड. किया। फिर अंग्रेज़ी शिक्षिका के रूप में बरेली के सैक्रेड हार्ट्स सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाने लगी। उसी दौरान मैंने अंग्रेज़ी में परस्नातक की डिग्री प्राप्त की और बिशप कॉनराड सीनियर सेकेंडरी स्कूल कैंट, बरेली में सीनियर क्लासेज में अंग्रेज़ी पढ़ाने लगी।किताबों से तो मुझे बहुत लगाव था ही, उस पर बच्चों से इतना प्रेम और इज्ज़त मिली कि अध्यापन को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।
ऐसी कौन सी परिस्थितियां थीं कि आपको नीरज से संजना बनना पड़ा?
अब मेडिकल टर्म में देखा जाए तो मैं जेंडर डिस्फोरिया के साथ पैदा हुए थी। लाखों में कोई एक बच्चा कुदरती ऐसा पैदा होता है जिसे अपने ही जिस्म और जननांगों से नफरत या कहें उनके साथ अच्छा नहीं लगता है। तो असल में मैं नीरज तो कभी थी ही नहीं!! थी तो बस संजना ही…एक बात मुझे अच्छी तरह से पता थी कि बिना शिक्षा प्राप्त किए इज्ज़त की ज़िन्दगी ख्वाब बन जायेगी। क्योंकि मैं अपने आस-पास अपने जैसे लोगों की दुर्दशा देखती रहती थी तो सपनों को विराम लगाकर सबसे पहले मैंने अपनी शिक्षा पूरी की। भाग्य और जुनून ने अध्यापक बना दिया और लग गई कच्ची मिट्टी को सुंदर इंसान बनाने में। वक्त का पता ही नहीं चला। मैं पढ़ने-पढ़ाने में इतनी खो गई कि संजना को जन्म देना ज़रूरी तो नहीं लगा लेकिन संजना को छुप-छुपकर जीती रही। कभी अपने जैसे दोस्तों के साथ तो कभी किसी कम्युनिटी पार्टी में।संजना भी खुश थी क्योंकि वो बैलेंस बना कर चल रही थी संजना और नीरज के बीच। सबसे सुकून की बात थी कि मेरी ममता को पंख लग गए थे।स्कूल के बच्चों संग जीवन अच्छा कट रहा था। तभी 2014 में पिता जी बहुत सीरियस हो गए थे, हार्ट की सर्जरी हुई थी। मेरी शादी के पीछे ही पड़ गए, मैं कोई न कोई बहाना बनाकर मना कर देती लेकिन रिश्ते तो जैसे रोज ही आने लगे।संजना बहुत डर गई।छुप-छुपकर ही सही, संजना कभी-कभी साँसें ले लेती थी।अब लगा कि खुद की ज़िन्दगी मझधार में है और पिताजी किसी लड़की की ज़िन्दगी भी खराब करवा ही देंगे और एक दिन हिम्मत करके पिताजी, भाई, माताजी को रोते-रोते सब सच बता दिया था।जो वो भी जानते थे लेकिन शायद भूल गए थे या याद नहीं रखना चाहते थे। पिता जी ने मृत्यु से पूर्व बड़ा ही प्यार दिया मुझे। मुझे समझा और हिम्मत दी सच को स्वीकार करने की। 2015 में पिताजी का स्वर्गवास हो गया लेकिन जाने से पहले वो संजना को जन्म दे गए।पापा की बिटिया संजना को।
क्या कभी आपको लगा कि अब मुझे ज़िंदा नहीं रहना है।
जी ऐसा तो कई बार लगा… हमारी ज़िन्दगी में ये शिकायतों का फलसफा चलता ही रहता है। एक बार दिल सच में बहुत मजबूर हो गया जब मैंने घर छोड़ा और दिल्ली आई।फिर जो मुसीबतों का पहाड़ टूटा, उसने रुला दिया और कोरोना में तो खाने को भी तरस गई। मजबूर होकर अपनी एक दोस्त के घर रहने लगी जो पेशे से किन्नर थी शुरू में तो सब ठीक ही था लेकिन जब पैसों की जरूरत मुँह खोले मुझे निगलने को थी तो दोस्त के कहने पर मैं उसके साथ काम पर गई। उसने कहा था कि तू सिर्फ हमारे साथ घूमना और तुझे एक हिस्सा हमारी कुल कमाई का मिल जाएगा। जब पहली बार नेग-बधाई में अपना हिस्सा बाँटा मिला तो बहुत तकलीफ हुई। अपने स्वर्गीय पिता से बहुत माफी माँगी और दिल हुआ कि इतनी पढ़ी-लिखी और अनुभवी होते हुए भी नौकरी नहीं मिली। किराये का घर नहीं मिल रहा था।जहाँ काम मांगने जाती वहाँ लोग जिस्म और खूबसूरती के चर्चे करते और कहते–घूमने चलो, महीने भर की सैलरी ले लेना। शरीर को बेचने से अच्छा तो अपनी दोस्त के साथ रहना और काम करना लगा डेरे पर लेकिन इस पैसे से सुकून नहीं था।बहुत कैद में थी वहां, बस जीने का मन ही नहीं था। मैं संजना बनने के लिए घर नौकरी छोड़ कर आई थी और बन कुछ और गई थी । खुद से नफरत सी होने लगी, रोती रहती और डिप्रेशन में जीने लगी। फिर मरने की सोची और निकल भी गई थी सड़क पर कि किसी गाड़ी के नीचे ही आ जाऊँगी लेकिन एक दोस्त ने मेरी उस नकारात्मक सोच को बदलने का काम किया। मुझसे कहा कि जब तुम इतनी प्रतिभाशाली होकर भी मरना चाह रही हो इससे अच्छा है कि अपने जैसों के लिए लड़ो। मरना तो एक दिन है ही! कुछ करके मरो। दो महीने लगे, खुद को संभाला। धीरे-धीरे सोशल कॉन्टैक्ट्स बनाए और जॉब के लिए प्रयास करती रही।
संघर्ष के बाद सफलता कैसे मिली ?
मैं जॉब के लिए आवेदन करती रहती थी, लेकिन जेंडर को लेकर बहुत ठोकर खाई और गंदी सोच का शिकार हुई ।फिर मैं ऐसी कंपनी और संस्था के बारे में खोजती रही जो एलजीबीटी को सहयोग करता हो। मौका मिला एक एनजीओ में जो ट्रांसजेंडर के हित के लिए कार्य करता था इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। मैं सारी डिग्रियां और आत्मविश्वास लिए पहुंच गई और फिर सभी आवेदकों को पीछे करते हुए मैं उस एनजीओ की प्रबंधक बन गई,पैसा-इज्ज़त मिलने लगी। जिसके लिए मैं दिन-रात दुआएं मांगती थी लेकिन इस एनजीओ के पदाधिकारी ट्रांसजेंडर के हित की कम और डोनेशन की ज्यादा सोचते थे …फिर मौका मिला भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय में काम करने का। मुझे मंच संचालन के लिए बुलाया था अच्छी आवाज़ और भाषा में पकड़ के चलते पहले कार्यक्रम मे खूब वाहवाही मिली और कथक केंद्र, संस्कृति मंत्रालय में प्रोग्राम सेक्शन में काम मिल गया। साथ ही साथ बड़े-बड़े कलाकारों के कार्यक्रम में मंच संचालन भी करती रही। दिल में ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए कुछ करने की इच्छा ने मुझे एलजीबीटक्यू सोशल एक्टिविस्ट भी बना दिया और मैने अपना ख़ुद का ट्रस्ट रजिस्टर्ड करवाया ‘लव दाए नेबर ट्रस्ट’। इसी के साथ मैंने लोगों की सोच को बदलने की मुहिम चला दी जो अभी भी ज़ारी है और तब तक चलती रहेगी जब तक कोई संजना अपने घर से बेघर रहेगी। न ही उसे वे काम करने होंगे जो इंसान को ज़िंदा लाश बना देते हैं।
जैसा कि आपने बताया आप डेरे में भी रह चुकी हैं। वहाँ के बारे में कुछ बताएं।
जी हाँ, मैं कुछ समय के लिए ही सही डेरे में रही जरूर हूँ। और शायद विधाता चाहते थे कि मैं उनके साथ रहूं उनकी ज़िन्दगी, दुख-सुख और अकेलेपन को महसूस कर सकूं।मेरे गुरु के डेरे में मुझे बहुत प्यार और इज्जत मिली। वजह शायद मेरी शिक्षा और प्रेमपूर्ण व्यवहार रहा, क्योंकि डेरों में खूबसूरती की कोई कमी नहीं होती। सभी ट्रांस खुद में किसी अप्सरा जैसी ही होती हैं। खाने-पीने का अच्छा इंतज़ाम रहता है। संसार में उपलब्ध मूलभूत सुविधाओं के साथ जीवन जीते हैं वहाँ के लोग।परन्तु हर डेरे के अपने कुछ नियम-क़ानून होते हैं। सबको उन्हें मानना ही होता है। गुरु तो मानो ख़ुदा के बाद सबसे बड़ा होता है।सब वहाँ गुरु-चेला परंपरा में रहते हैं और एक गुरु के सारे चेले आपस में गुरुभाई होते है। गुरु भाइयों में बड़ी जलन और एक-दूसरे से बेहतर बनने की प्रतिस्पर्धा होती है। सब लोग गुरु को प्रभावित करने में लगे रहते हैं जिससे कि गुरु उसे अपना वारिस बनाए। डेरो में प्यार-मोहब्बत सजना-संवरना, सब कुछ गुरु के नाम से ही होता है। किसी का अगर बॉयफ्रेंड बन जाये तो बड़ी बातें सुननी पड़ती हैं और भविष्य को लेकर हमेशा संकट रहता है। वहाँ तसल्ली नहीं मिलती न ही आज़ादी घर जाने की होती है, अपनी मर्ज़ी से घूमने-फिरने, रिलेशनशिप में रहने की भी कोई छूट नहीं मिलती। ऐसा मान लीजिए कि सोने के पिंजरे में चिड़िया कैद हो।
डेरा बनाने का कॉन्सेप्ट कहाँ से आया कि हम एक डेरे में रहेंगे, शहर से बिल्कुल अलग रहेंगे। ऐसा क्यों?
डेरे बने क्योंकि समाज ने हमें स्वीकार नहीं किया। जब समाज को हमारे पैदा होते ही प्यार की जगह घृणा,डर और अपमान के भाव आने लगते हैं तभी से शुरू होता है दौर घर से निकाले जाने का। अगर कोई परिवार वाले पालन-पोषण करते भी हैं तो बड़ी मार-पीट के साथ रखते हैं। तो जब समाज और अपने परिवार ने ही त्याग दिया तो कुछ ट्रांस ने मिलकर डेरा बना लिया । पहले तो मुजरा,नौटंकी, गाना-बजाना करके पेट और डेरा पल जाता था…पर आज तो बधाई, नाच-गाने और देह-व्यापार ही ट्रांस की मजबूरी बन गई है। डेरा मजबूरी और आवश्यकता में बना, जब घर नहीं था तो घर जैसा ही डेरा बना लिया।इसे एक गुरुकुल ही समझ लीजिए। समाज से दूर, फिर भी समाज में और समाज के लिए।
जब आप पहली बार बधाई मांगने गईं, उसके बारे में विस्तार से बताएँ।
मैं जिस डेरे में गई थी वहाँ बहुत ही सभ्य और सुसंस्कृत लोग हैं।वहाँ की नायक खुद भी बहुत खूबसूरत और आकर्षक हैं।उनकी भी मजबूरी थी जो वो किन्नर समाज में शामिल हुए। इसी वजह से वह हम सभी जो उनके चेले थे, उनका विशेष ध्यान रखती थीं। हमारे इलाक़े में काफी भीड़ होती है। बाजार क्षेत्र की वजह से तो हम ढोलक और नाच-गाना नहीं करते थे। घर से खूब अच्छे से लिबास में मैडम के साथ रिक्शा किया और इलाके में घूम लिए। कहीं कोई शगुन कार्य हुआ तो पूजा के चावल डालकर, सिक्का-दुआएँ देकर, दुकान और जजमान की नज़र उतारकर नेग लिया और दो-तीन नेग बधाई के साथ लेकर डेरे पर वापस लौट जाते थे। हमारी गुरु बहुत प्यारी हैं, उन्हें पैसे का लालच नहीं है। जब मैं पहली बार गई तो गुरु सब लोगों को बता रही थीं कि मैं कितनी पढ़ी-लिखी हूँ। मुझे जजमानों से अंग्रेज़ी में बात करने को कहा गया था।मैं एक गुड़िया के समान अंग्रेज़ी बोलती और हँसती-मुस्कुराती रहती। मेरा शिष्टाचार जजमानों को बहुत लुभाता और वो हैरान होकर तरस दिखाते कि ऊपर वाले ने मेरे साथ बड़ा ही अन्याय किया है। मुझे बेटी और बहन बना लिया था कई लोगों ने। एक जजमान तो रोने ही लगे थे। जब पहली बार देखा तो एक ने घर में बीवी-बच्चों को बताया तो उन्होंने मेरे लिए साड़ी भेंट की। मुझे शिक्षित और शिष्टाचारी होने के कारण बहुत प्यार मिला ।गुरु माँ,गुरु भाई,जजमान सब मुझे बहुत प्यार करते थे और मैं मन ही मन यही प्रार्थना करती थी कि कुछ ऐसा करूँ कि लोग ट्रांसजेंडर समाज को इज़्ज़त से देखें, बराबरी का काम दें और सम्मान की ज़िन्दगी मिले सबको।पैसा,कपड़ा और प्यार तो था लेकिन तरस खाकर दिया पैसा भीख जैसा चुभता था ।मेहनत करके कमाया हुआ खुद की काबिलियत का पैसा सुकून देता है। यह अंतर मैं महसूस कर चुकी थी। एक तरफ बारह वर्ष शिक्षण कार्य और दूसरी तरफ नेग-बधाई माँगना…ज़मीन-आसमान का अंतर था एक तरफ तरस और मजबूरी और एक तरफ काबिलियत और आत्मसम्मान।
आमतौर पर देखा गया कि थर्ड जेंडरों का नाम स्त्रीलिंग की ओर झुका पाया जाता है। इसके बारे में आपका क्या कहना है।
जी, सही कहा आपने लेकिन इस हक़ीक़त के पीछे जो सत्य है वो है पुरुष प्रधान समाज। दरअसल थर्ड जेंडर में ट्रांसवूमैन और ट्रांसमैन दोनों ही आते हैं। भारतीय समाज एक ऐसा समाज है जिसमें सदियों तक महिलाएँ घर के अंदर घूँघट में रहती थीं और पुरुष ही थे जो सामाजिक आज़ादी का लुफ़्त लेते थे। इस आज़ादी का फायदा मिला ट्रांसवूमैन को जो पैदा होती है एक पुरुष शरीर में लेकिन होती है एक महिला। ट्रांसवूमैन जल्दी ही अस्तित्व में आ गई।नाच-गाना हो या धार्मिक कथाओं में पात्रों के चरित्र निभाना,पुरुष ही सब करते थे या कहा जाए कि ट्रांसवूमैन ऐसा करने लगे।पुरुष पैदा हुए थे तो आज़ादी के साथ-साथ अपमान और शारीरिक शोषण भी मिलता था। तो बन गए किन्नर कोठियाँ और हिजड़ा डेरे। जब रहने,खाने,पीने और कमाने की सहूलियत मिली तो जनसंख्या भी बढ़ने लगी इनकी जो आज लाखों में हो गई है । इसलिए हमें अपने आस-पास ट्रांसवूमैन ज्यादा दिखती हैं और स्त्रीलिंग का नाम रूपक इनकी पहचान बन जाता है।लेकिन आज धीरे-धीरे ही सही, महिलाओं ने भी जेंडर परिभाषित किया है और खुलकर अपनी अभिव्यक्ति को ज़ाहिर किया है । आज कम ही सही आपको ट्रांसमैन जरूर दिख जाएँगे जो पुरुष नाम रखते हैं।
ट्रांसवेस्टिज्म के बारे में क्या कहना चाहेंगी?
यह टर्म काफी पुराना है, जिसे क्रॉसड्रेसर ने ज्यादा सटीक तरीके से परिभाषित किया है और ज्यादा चलन में भी है। ट्रांसवेस्टिज्म मतलब एक पुरुष या महिला काम, व्यवसाय,फैंटेसी और प्रयोगवाद के लक्षणों के तहत विपरीत लिंग के परिधान पहनते हैं…जो कुछ समय के आनंद या ज़रूरत के लिए होता है ।यह टर्म ट्रांसजेंडर या थर्ड जेंडर से बिलकुल ही अलग है।
किन्नर और ट्रांस में क्या अंतर है?
हर किन्नर ट्रांस है लेकिन हर ट्रांस किन्नर नहीं है । किन्नर का अस्तित्व दो प्रकार से है– 1. शारीरिक तौर से 2. पेशे से
शारीरिक तौर से भी किन्नर दो प्रकार के होते हैं।प्रथम वो किन्नर जो जन्म से उभयलिंगी या इंटरसेक्स होते हैं।नाम से ही ज्ञात है कि उनके जननांग कुछ ऐसी बनावट लिए होते हैं कि देखने वाला कंफ्यूज हो जाता है कि यह योनि है या लिंग है। दोनों का ही समावेश आधी-अधूरी तरह से उभय होता है। इसलिए उभयलिंगी जेंडर परिभाषित होता है। दूसरा वो किन्नर जो पुरुष जननांग के साथ पैदा होता है परंतु मानसिक रूप से स्त्री होता है। विशेष बात है कि जेंडर मानसिक दृष्टि से परिभाषित होता है और मन से स्त्री भाव होने के कारण ऐसे पुरुष निर्वाण (एक प्रकार की शल्यक्रिया) करवाकर स्त्री और पुरुष के जननांग से मुक्ति पा लेते है और धर्म-अध्यात्म में आ जाते हैं। पेशे से वो सभी लोग किन्नर हैं जो बधाई देने, नेग माँगने में लगे हुए हैं और डेरे में गुरु-शिष्य परम्परा के साथ रहते हैं। समाज में होने वाले मांगलिक अवसरों पर शगुन और नेक मांगते हैं।इस प्रकार के समूह में व्यक्ति अपनी मर्जी से जाता है। इसमें हर उस इंसान का स्वागत होता है जो उभयलिंगी है,निर्वाण प्राप्त है या सेक्स चेंज सर्जरी के द्वारा पुरुष से स्त्री बना हो।वो व्यक्ति जो शरीर से पुरुष और मन से स्त्री है (क्रॉसड्रेसर्स) वो भी इस समूह में शामिल हो सकता है ।
ट्रांस– हर वो व्यक्ति जो अपने जन्म के जननांग के साथ खुश नहीं होता वरन विपरीत लिंग में खुद को ज्यादा सहज महसूस करता है वो ट्रांस है। ट्रांस महिला शरीर में पुरुष अभिव्यक्ति वाला भी हो सकता है और पुरुष शरीर में महिला अभिव्यक्ति वाला भी हो सकता है। इस वर्ग में सर्जरी या निर्वाण होना आवश्यक नही है । आप खुद से ही अपना जेंडर परिभाषित कर सकते हैं।
क्या आप कभी किसी लड़के की तरफ आकर्षित हुईं। अगर हुईं तो उसका अनुभव बतायें।
पहला प्यार एक खूबसूरत अनुभूति था परंतु आकर्षण हुआ एक बहुत ही सुलझे और पढ़े-लिखे युवक से। दिखने में तो वो था ही खूबसूरत नौजवान लेकिन मुझे उसके व्यक्तित्व ने बहुत ही क्रेजी कर दिया था । उसका बात करने का स्टाइल, उसका अंग्रेज़ी बोलना, उसका हमेशा साफ-सुथरे सलीके वाले परिधान पहनना।मतलब मैं बहुत इंप्रेस थी और शायद वही व्यक्तित्व मुझमें आज भी दिखता है।कहना ग़लत न होगा आज अगर मेरी पर्सनलिटी में लोगों को जो आकर्षण दिखता है, उसमें इस इंसान का काफी योगदान है और मजे की बात यह है कि उस इंसान को आज तक ये पता ही नहीं है।
क्या आपको कभी किसी से प्यार हुआ? अगर हुआ तो कितने दिनों तक चलता रहा?
प्यार से कौन बचा है भला।मुझे भी प्यार हुआ या ये कहें कि किसी को मुझसे प्यार हो गया था और उसके प्यार में इतनी शिद्दत थी कि मैं कब उसे कुबूल कर बैठी, मुझे भी पता नहीं चला। वो मेरी किशोरावस्था थी। मेरा सीनियर था वो, सांवला था लेकिन दिल का अच्छा था।प्यार ही करता था वो। हम करीब दो साल प्यार में रहे। फिर मैं और वो ज़िंदगी में और अधिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्यार की राहों से सहर्ष अलग-अलग हो गए। कुछ साल बाद उसकी शादी हो गई और बच्चे हो गए। हम आज भी अच्छे दोस्त के समान एक-दूसरे से संपर्क में हैं। प्यार दोस्ती बन गया और हम आज भी एक दूसरे के शुभ चिंतक है
लिव इन रिलेशन के बारे में विस्तार से बताएँ। उसका अनुभव?
लिव इन रिलेशन की शुरुआत मेरे सेक्स चेंज सर्जरी से दो साल पहले शुरू हुई थी।हुआ कुछ यूँ कि बरेली में तो अपने परिवार के साथ रहती थी तो अकेलापन कभी महसूस ही नहीं हुआ। जब दिल्ली आई 2019 में तो महसूस हुआ कि मैं बहुत अकेली पड़ गई हूँ ।दोस्त थे कई सारे लेकिन मेरे मन के नहीं थे और जो मन के थे वो अपने काम-धंधे में लिप्त थे। तभी मैं अपने रूममेट के एक दोस्त से मिली जो हमारे रूम पर किसी काम के लिया आया था, वो पेशे से एक डॉक्टर है ।वो मुझे या यूँ कहें कि मेरी सादगी को देखकर बड़ा हैरान हुआ और बड़े आश्चर्य से मेरे बारे में पूछताछ करने लगा।उसे लगा कि मैं लड़की हूं। मेरी दोस्त ने,जो खुद एक ट्रांसवूमैन थी, उसे बताया कि मैं भी एक ट्रांसवूमैन हूँ। यहीं से वो लड़का मेरी तरफ और अधिक खिंचता चला गया। मेरी एजुकेशन, मेरी सोच,मेरा पहनावा; सब उसे वैसा ही लगा जैसा वो चाहता था और फिर हमारी दोस्ती हो गई । धीरे-धीरे यह दोस्ती प्यार में बदलने लगी। जब कोरोना आया,मैं घर से दूर थी और रूममेट्स भी अपने-अपने घर चले गए थे।ऐसे में उसने मेरा बहुत साथ दिया। मुझे लगा मेरे पापा वापस आ गए हैं।मेरी तबीयत, दवाई और घर की सारी ज़रूरतों का ख्याल वो ही रखने लगा । और फिर जब लॉकडाउन में थोड़ी ढील मिली और मैं घर गई तो मुझे अच्छा नहीं लग रहा था अपना घर पराया सा लग रहा था। शायद दोस्ती प्यार में बदल गई थी। दिल्ली जाते ही प्यार का इज़हार हो गया और फिर एक साल तक हम प्यार में ही रहे। अप्रैल 2021 में मेरी सर्जरी हुई। मेरी सर्जरी में उसने बहुत अच्छी तरह मेरा ख्याल रखा। नवम्बर 2021 से हम साथ रहने लगे।शुरू में उसके परिवार ने बहुत क्लेश किया लेकिन हम आज भी लिविंग रिलेशन में हैं। उसका परिवार भले ही मुझे बहू नहीं मानता हो लेकिन बेटी के रूप में खूब प्यार करते हैं। रोज ही बातचीत और मुलाकात हो जाती है।अब दिल्ली में मैं अकेली नही हूं,उसका परिवार मेरा बन चुका है और सारा परिवार मुझे बहुत प्यार और सम्मान देता है। मुझे ट्रांसवूमैन की लाइफ का यह सबसे सुंदर हिस्सा लगता है। न ज़माने की परवाह, न दकियानूसी भरी सामाजिक परंपराएँ । बस दो दिल जो जीना चाहते हैं,खुश रहना चाहते हैं । किसी ने क्या खूब कहा है- एक अहसास है ये रूह से महसूस करो…प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो ।
जी हाँ, हमारे रिश्ते का भी कोई नाम नहीं है।न ही कोई निकाहनामा, न कोई पंडित न, कोई पादरी, न गवाह, न कोई सबूत। बस है तो केवल प्यार है। मैं खुश हूँ लिव इन रिलेशनशिप में।
क्या आपको नहीं लगता कि इस तरह के सम्बंध बहुत दिनों तक नहीं चलते हैं। आपकी राय।
ट्रांसवूमैन की ज़िन्दगी में कुछ भी बहुत दिनों तक नहीं चलता। जब जन्म देने वाले माता-पिता समाज की वजह से हमें अकेला छोड़ देते हैं । तो फिर अपने साथी से क्या शिकवा, क्या शिकायत ।जो पल भी साथ है, खुशी से उसे जीना ही समझदारी है। हसरतें तो कहती हैं कि माँ-बाप कोई लड़का ढूँढते, फिर मेरे भी दरवाज़े बारात आती।मैं भी दुल्हन बनकर ससुराल जाती…लेकिन हसरत और हक़ीक़त के बीच उलझी ट्रांसजेंडर महिला और ट्रांसजेंडर पुरुष खुद ही सीख लेते हैं …जिंदगी को खुलकर जीना,बिना शर्तों के, बिना बंधन के। हक़ीक़त में लिव इन रिलेशनशिप ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए एक आशीर्वाद ही है।
थर्ड जेंडर समुदाय को किस तरह से मुख्यधारा में लाया जा सकता है? जो लोग समाज में रहकर भी समाज से अलग-थलग रह रहे हैं, उनको मुख्यधारा में कैसे लायें? क्या योजना होनी चाहिए?
समानता के अधिकार के साथ ही ट्रांसजेंडर को मुख्य धारा में जोड़ सकते हैं। संविधान द्वारा उपलब्ध करवाए गए समानता के अधिकार में वे सभी बातें सम्मिलित हैं जो पुरुष और स्त्री के समान रूप से जीवनयापन के लिए ज़रूरी हैं। जो लोग अलग-थलग हैं, उन्हें व्यापार से और प्यार से ही एक किया जा सकता है। अगर पढ़ाई और सरकारी नौकरी में रिजर्वेशन जैसी कुछ सुविधाएं मिलें तो कोई ट्रांसजेंडर अपने परिवार के ऊपर कभी बोझ न बने। सरकार द्वारा प्रदत्त योजनाओं में सर्वप्रथम पढ़ाई और नौकरी जैसी सुविधाएं होनी ही चाहिए…क्योंकि समाज बड़ा अवसरवादी है। यह केवल अपना लाभ देखता है। किसी मनुष्य की उपयोगिता ही उसे समाज में प्रतिष्ठा प्रदान करती है। जिस दिन समाज को यह दिखेगा कि हमारे पास ज्ञान भी है और हम आर्थिक रूप से किसी दूसरे पर आश्रित नहीं हैं, अपना जीवन-यापन स्वयं करने में सक्षम हैं, तो समाज खुद ही हमारा उपभोग और उपयोग करने लगेगा।
अपने समुदाय और आम समाज के लिए कोई संदेश?
संदेश नहीं सुझाव है। हम भी आम समाज में ही पैदा होते है। हमारे माँ पापा बिल्कुल सामान्य व्यक्ति है। भाई-बहन पूरा परिवार सब ही आम इंसानों जैसे है बल्कि अपने सच को स्वीकार करने से पहले हम भी समाज का हिस्सा थे और और बहुत इज्जत शोहरत थी, हमारी भी सच तो बड़ा बलवान होता है और बचपन से सभी धर्मों में, शास्त्रों में सच का बड़ा सम्मान प्रताप है । लेकिन मैंने जैसे ही सच बोला तो मैं समाज से निकल दी गई और थर्ड जेंडर समुदाय में आ गई। सच बोलने की इतनी बड़ी सजा मिली कि घर परिवार नौकरी सब छूट जाए। अपने समुदाय को यही सीख है कि पढ़ाई जरूर पूरी करे और आत्मसम्मान, आत्मप्रेम आत्म विश्वास के साथ जीना सीखिए।
समाज से अनुरोध है कि स्वीकार करना सीखिए बहिष्कार से ही पाप जन्म लेता है। आपका बच्चा कैसा भी है वो आपका है। उसे पढ़ाए-लिखाए उसे घर से न निकाले क्योंकि घर के बाहर हमारा शोषण होता है। हमे प्यार की जरूरत है भीख की नहीं।