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9 Jun 2022 · 7 min read

रेत समाधि : एक अध्ययन

पुस्तक समीक्षा
रेत समाधि (उपन्यास): गीतांजलि श्री
संस्करण : जून 2022
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 1 बी ,नेताजी सुभाष मार्ग ,दरियागंज ,नई दिल्ली 110 002
मूल्य : ₹450
पृष्ठ संख्या : 376
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समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 9997 6154 51
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रेत समाधि : एक अध्ययन
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रेत समाधि अपने प्रवाह के लिए जाना जाएगा । मैं चमत्कृत हूऀ क्योंकि शब्द उपन्यासकार के हाथों में आकर इस प्रकार उत्साह से भरकर आगे बढ़ चलते हैं कि पता ही नहीं चलता कि रुकना कहाऀ है । जैसे नदी एक बार अपने मूल स्रोत से बाहर आई नहीं कि फिर उसे चलना ही चलना है। कभी पत्थरों से टकराकर ,तो कभी किसी मोड़ पर बल-खाकर, कभी सीधे सपाट आगे बढ़ती ही चली जाती है । उपन्यास की कथा के साथ भी यही है । कहानी या किस्सा जो भी कहिए ,कितना आकार ले रहा है ,कैसा आकार ले रहा है ,इसके सोच में मत पड़िए। कई बार पृष्ठ पर पृष्ठ पलटते जाते हैं । पाठक शब्दों के जादू भरे अंदाज में मंत्रमुग्ध हो जाता है, और पता चलता है कि कहानी तो कहानी के पारंपरिक सांचे में अभी दो कदम भी नहीं चली ।
यही तो खूबी है “रेत समाधि” में। इसकी लेखिका खूब मन से कहानी कहती हैं । लेकिन अकेली नहीं ,कुछ वह सहयात्रियों को साथ में लेकर कभी कौवा कभी तीतर कभी दरवाजा कभी छड़ी नए-नए सहयात्री अलग-अलग रूपों में उपन्यासकार के साथ-साथ चलते हैं । अनेक बार उपन्यासकार अपने उन सहयात्रियों से ही बातें करने लग जाती हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि उपन्यास आगे नहीं बढ़ता । इसका अर्थ यह है कि उपन्यासकार को कहानी पूरी करने की कोई जल्दी नहीं है। पाठक भले ही सोचते रहें कि कहानी को क्या हो गया ,लेकिन जिन्हें एक-एक शब्द पढ़कर पन्ना पलटना है ,”रेत समाधि” उनके लिए है । अगर सीधे-सीधे ही पुराने शिल्प में उपन्यास को ढालना होता तो 376 प्रष्ठों की आवश्यकता नहीं रहती है। आखिर कहानी बहुत बड़ी नहीं है।
यह चंदा और अनवर की अमर प्रेम कहानी है । बऀटवारे से पहले पाकिस्तान में चंद्रप्रभा देवी का युवावस्था का प्रेम एक मुसलमान नवयुवक से हो जाता है । फिर दोनों अपने परिवार-जनों की सहमति से विवाह कर लेते हैं । चंद्रप्रभा चंदा बन जाती है । अनवर और चंदा नया दांपत्य जीवन शुरू करते हैं। तभी बंटवारा सामने आ जाता है। चंदा अनवर से बिछड़ जाती है और भारत विषम परिस्थितियों में धकेल दी जाती है । फिर न अनवर का चंदा से और न चंदा का अनवर से कोई मेल होता है। चंदा अस्सी साल की हो जाती है। इस बीच भारत में एक अच्छे खाते-पीते परिवार में चंद्रप्रभा की शादी होती है ,बच्चे होते हैं ,पति की मृत्यु हो जाती है और उसके बाद चंदा यानि चंद्रप्रभा को अनवर की याद आने लगती है । वह पाकिस्तान पहुऀचकर अनवर को ढूऀढ निकालती है । उससे मिलती है । लेकिन नाटकीय परिस्थितियों में गोली लगने से चंदा की मृत्यु हो जाती है । कहानी के पात्र केवल चंदा और अनवर नहीं है ,उनमें चंदा अर्थात चंद्रप्रभा देवी का परिवार भी है। बेटे बहू हैं । बेटी है । बेटी लिव इन रिलेशनशिप में रहती है । चंदा के जीवन में अस्सी साल की उम्र में अब तक दबी हुई इच्छाएऀ प्रकट होने लगती हैं । उपन्यासकार ने विस्तार से बेटी के साथ माऀ को खुश रहते हुए दिखाया है । लिव-इन-रिलेशनशिप का माहौल व्यक्ति को किस प्रकार से बंधनों से मुक्त कर देता है ,दर्शाया है । एक पात्र रोजी उर्फ रजा टेलर मास्टर हैं । उन के समलैंगिक -से सानिध्य में नायिका को स्पर्श-सुख से लाभान्वित होते हुए दिखाया गया है । उपन्यास बताता है कि शादी-ब्याह ,बच्चे और परिवार होते हुए भी एक स्त्री किस प्रकार अपने भीतर एक खोखलापन महसूस कर सकती है तथा उसे कुछ अतिरिक्त रह जाने का भाव बना रहता है । यह एहसास कब-किन परिस्थितियों में किस रूप में प्रकट हो जाए ,इसे कौन कह सकता है ?
उपन्यास की रचना-शैली अपने आप में मनमोहक है । रचना-शैली के कई उदाहरण देखने में मिलते हैं ।
(1) सहयात्री-शैली :
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“रेत समाधि” में कौवा ,तीतर, चिड़िया ,छड़ी ,पेड़ ,फूल ,पत्ती आदि को सहयात्री के रूप में अपने साथ लेकर चलते हुए कहानी कही गई है । कौवा अनेक बार कहानी का मुख्य पात्र बन गया है । इससे कथा में जहाऀ आकर्षण बढ़ जाता है ,वहीं उपन्यासकार को बहुत सी अभिव्यक्तियाऀ सहयात्री के माध्यम से व्यक्त करने में सुविधा हुई है ।
( 2 ) काव्यमय रचना शैली :
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ऐसा अक्सर होता है कि उपन्यास में ही कुछ कविताएऀ शामिल कर दी जाती हैं । इनसे उपन्यास का सौंदर्य बढ़ता है । रेत समाधि में ऐसी कविता केवल एक ही है ,जो इस प्रकार है :
“इक बार मुकाबला प्यार हुआ
एक सुक्खड़ एक व्यभिचार हुआ
एक ओट हुआ एक डटा हुआ
ये भेड़ बना वो चरवाहा
ये पाऀव रहा वो सर-निकला”
(प्रष्ठ 22)
( 3 ) गद्य-काव्य शैली :
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गद्य में पद्य का संगीत उत्पन्न करना “रेत समाधि” की मुख्य विशेषता है । इस गुण से उपन्यास के पृष्ठ भरे हुए हैं । उपन्यासकार की यह मुख्य शैली है कि वह काव्यात्मकता से ओतप्रोत होकर गद्य की प्रस्तुति करती हैं। कुछ उदाहरण देखिए :
“किसी फ्लैट में कामवाली ने बाल्टी टनकाई । किसी ने ताजा मसाला कूटा । सुगंध गायी। किसी ने खरल में इलायची पीसी, दिल को भायी। माऀ ने लंबी चुस्की ली जैसे चिड़िया की धुन निकालती हो ।” (पृष्ठ 136)
गद्य-काव्य का ही एक अन्य उदाहरण देखिए:
“सुबह सुबह जब माऀ बालकनी पर चाय पीती है काली चिड़िया लंबी सीटी मारती है । चढ़ती उतरती लय ।”
( पृष्ठ 142 )

( 4 ) वर्णनात्मक शैली :
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परिदृश्य का सजीव चित्रण करने में “रेत समाधि” का कोई मुकाबला नहीं । ऐसा चित्र मानो दृश्य स्वयं कागज पर उतर आया हो। घटनाओं को इस प्रकार प्रस्तुत करना कि पढ़ते समय पाठक भी उस घटना का स्वयं को एक अंग समझने लगें, यह अद्भुत चमत्कार गीतांजलि श्री की लेखनी में ही है । आइए एक उदाहरण देखें :
“दावत क्या थी सरकारी फाइलों में चिरकाल के लिए दर्ज हो गई । बड़े ने क्या लास्ट लंच दिया। नामी-गिरामी पहुऀचे । सरकारी मुलाजिम ,नए पुराने तो थे ही मगर खानदानी रियासतों के बड़े जैसे ममदोत के नवाब बहादुर, जैसे ध्रांगध्रा के महाराज और मिलों कंपनियों के मालिक जैसे बघेलूराम और पेट्रोलपंपवाला और फिल्मी हस्तियाऀ जैसे…”
( पृष्ठ 54)

( 5 ) हास्य व्यंग्य शैली:
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सीधे-सपाट ढंग से अगर कहानी आगे बढ़ जाए तो फिर वह “रेत समाधि” ही क्या हुई ! रस ले-लेकर चीजों को वर्णित करना उपन्यासकार को खूब आता है। इसलिए हास्य-व्यंग्य शैली का बखूबी उपयोग उपन्यास में स्थान-स्थान पर हुआ है । प्रायः परिवारों में कुछ लोगों को जोर-जोर से चिल्लाकर बोलने की आदत होती है । उपन्यासकार ने इस चीज को पकड़ा और हल्के-फुल्के अंदाज में पाठकों के सामने मनोरंजन के लिए प्रस्तुत कर दिया । आप भी आनंद लीजिए:

“चिल्लाना परंपरा है ।बड़े बेटों का चिल्लाने का पुराना रिवाज है। कहा जाता है कि बड़े के पिता दिल से चिल्लाते थे जबकि बड़े का दिल ज्यादा खौलन नहीं मारता । पर जबान दोनों की एक सी है । रिटायरमेंट तक पिता चिल्लाते थे ,फिर चिल्लाना बेटे को सौंप कुछ शांत हो चले । बड़े ने और जोरों से चिल्लाने की शान ओढ़ी और चमकने दमकने लगे।” (पृष्ठ 24-25)

(6)संवाद अदायगी की भाषा-शैली :
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वैसे तो उपन्यास में स्थान-स्थान पर उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग बहुत सहजता के साथ उपन्यासकार ने किया है ,लेकिन कुछ स्थानों पर तो उर्दू के वाक्यों में संवाद के प्रस्तुतीकरण ने मानों दृश्य में जान ही डाल दी है। पाकिस्तानी संदर्भ में ऐसा ही एक संवाद उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत है :
“आपका हमारे मुल्क में इस्तकबाल है ,जब कहिए ,एंबेसडर ने कहा । आपने हमारी दुख्तर को सिखाया है ।” ( प्रष्ठ 263)

( 7 )विचार प्रधान शैली :
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इस शैली का उपयोग भी उपन्यास में कम नहीं हुआ है। अनेक स्थानों पर उपन्यासकार को विचारों के रूप में अपनी बात कहने की आवश्यकता महसूस हुई है और उसने उसे कथा का एक अंग बना लिया। विचारों को उपन्यास में प्रस्तुत करना गलत नहीं माना जाता । अच्छाई इसमें यह रहती है कि पाठकों को उपन्यास की विचारधारा के बारे में कोई भ्रम नहीं रहता । “रेत समाधि” के कुछ प्रष्ठों से इस विचारधारा-भरे वाक्यों को उद्धृत करना अच्छा रहेगा। भारत-पाकिस्तान एकता के बारे में ही उपन्यास के विचार प्रस्तुत हैं :
” पर हिंदुस्तान-पाकिस्तान की दोस्तियों की किसे पड़ी ? जमाना तो होड़ और दुश्मनियों का डंका बजाने का हो चला । जब नफरत उठान पर हो तो प्रेम की बातें गिजगिजी और पिचपिची लगती हैं । खैबर को लैला मजनू शीरी फरहाद चंदा अनवर से कौन जोड़ता है ?” (पृष्ठ 361)
एक अन्य स्थान पर जहाऀ चंदा और अनवर की मुलाकात होती है ,उपन्यासकार ने दो प्रेमी हृदयों के मिलन को इन विचारों के साथ परिभाषित किया है :
“दो सादे दिलों का कभी कोई मुकाबला नहीं । सादापन सा क्षणभंगुर कोई एहसास नहीं। इसीलिए वही सदियों को जोड़ पाता है । वही दूरी को पाट देता है। वही खाई को लाऀघ जाता है। “ (पृष्ठ 354)
कुल मिलाकर उपन्यास प्यार की उन अनुभूतियों की ओर हमें ले जाता है जो मनुष्य-जीवन की आधारभूत आवश्यकताएऀ हैं। अतृप्त यौन इच्छाएऀ जिस प्रकार से छटपटाती हैं और संतुष्टि के अपने रास्ते तलाशती हैं ,उन सब का चित्रण उपन्यास में किया गया है । इनकी वास्तविकताओं को नजरअंदाज करना अथवा इनके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाना सही विश्लेषण नहीं कहा जा सकता । हाऀ ,इतना अवश्य है कि अगर लिव-इन-रिलेशनशिप और समलैंगिकता ही यौन संतुष्टि तथा स्वतंत्रता के मापदंड बन गए तथा परिवार-बच्चे और विवाह जैसी संस्थाएऀ दृष्टि से ओझल होने लगें तो आने वाले समय का चित्र क्या कुरूप नहीं हो जाएगा ? उपन्यास इस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थ रहा है ।
कुछ मामलों में उपन्यासकार से भयंकर चूक हुई है । प्रष्ठ 222 पर भगवान शिव और पार्वती का प्रसंग उनमें से एक है ।
भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा-रेखा को मिटा देने का सपना तो सब ने देखा है लेकिन क्या यह तब तक संभव हो सकता है जब तक पाकिस्तानी-बंधु भारत माता की जय के रूप में भारत के इतिहास को अपना इतिहास मानते हुए आत्मसात नहीं कर लेते ? उपन्यास उपरोक्त प्रश्न पर भी निरुत्तर है ।

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