पैमाना, दु:ख का
(अरुण कुमार प्रसाद)
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मुझे भोजन नहीं मिला मैं दु:खी हूँ।
मुझे वस्त्र नहीं मिला मैं दुखी हूँ।
मुझे छत नहीं मिला मैं दुखी हूँ।
ये मौलिक दु:ख हैं।
दु:ख की सूची अनंत है।
दुखी भी वीतरागी-संत है।
दुनियाँ दुख से त्रस्त है।
जो नहीं है वह भ्रष्ट है।
अहंकार से दुख लेता है पैदा।
दुख युद्ध को देता है जन्म।
युद्ध सब कुछ करता है खत्म।
खत्म हो तो ईश्वर मुसकुराता है।
कभी-कभी खत्म करने वह भी आता है।
एक नया संसार खोलकर जाता है।
प्रबुद्ध विचारों की शृंखला
परिशुद्ध करता हुआ पहला
खुद को कर जाता है स्थापित।
और संसार को विमूढ़ता से शापित।
दर्शन की कविता पागल होती है।
मिथ्या है और सुख सी घायल होती है।
निर्धन हूँ मैं इसलिए है दु:ख।
निर्बल हूँ मैं इसलिए है दु:ख।
नि:संतान हूँ मैं इसलिए है दु:ख।
यह भविष्य का दुख है।
भविष्य पराक्रम की करता तो है प्रतीक्षा।
जीतना न जीतना है पराक्रम की इच्छा।
वैचारिक दु:ख दे जाते हैं पूर्वज।
सांसारिक दु:ख अनुकरण।
प्राप्ति का त्याग दु:ख है।
त्याग की प्राप्ति सुख नहीं है।
क्योंकि मृत्यु में सुख नहीं
सुख से मृत्यु में सुख है।
यह भविष्य का दुख है।
अव्यवस्थित स्थितियाँ दु:ख का है कारण।
अन्तर्मन की अनिश्चितता दु:ख का है कारण।
अनंत से आगे नहीं होना दु:ख का है कारण।
यह दर्प और दुविधा का दु:ख है।
दर्प आन्तरिक वेदना है।
वेदना का निर्घिण प्रदर्शन।
और दुविधा तान,लय,सुर भूल जाना।
त्रुटियों के साथ जीना।
शायद त्रुटियों के साथ मरना।
जीवन निरीह निहारता रहता।
कहने की अथक कोशिश करता।
अंधकार पढ़कर प्रकाश नहीं गढ़े जाते।
सिर्फ बेवजह बढ़े जाते।
निर्जल उपवास से तन क्षुधित हुआ व दुखित हुआ।
निर्जन में मन ने ध्यान किया बस भोग सामने खड़ा हुआ।
निर्मल होकर ढूंढा ईश्वर गुरुओं ने ग्रंथ ही थमा दिया।
मैं हो विमूढ़ अति दुखित हुआ।
यह अध्यात्म का दु:ख है।
अध्यात्म ईश्वरीय साक्षात्कार के कर्तव्य से स्खलित।
मानव अध्यात्म में सत्य खोज हारता, प्रमुदित।
बढ़ जाता है जीवन सुंदरता से असुंदरता की ओर।
पता नहीं मानव कौन सा सच ढूँढने रहता विभोर।
ढूँढने का यह सुख खोलता है उसके दुख का द्वार।
ईश्वरीय अस्थाओं के औज़ार से करता है अत: प्रहार।
अध्यात्म का दु:ख अभावों के दु:ख का है दुर्दैव।
इसे गहन कर ही अमानवीय युद्ध हुए हैं सदैव।
अध्यात्म निष्फलता से भरा दु:ख है।
वहाँ कुछ खोजना जीवन से होना विमुख है।
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