पेशे से मज़हब का ठेकेदार लगता है
पेशे से मज़हब का ठेकेदार लगता है
वो आदमी मुझे दिमागी बीमार लगता है
मैं मलूल रहूँ तो ये भी मुस्कुराता नहीं
आईना मुझे सच्चा ग़म-गुसार लगता
शब भर इसे भी नींद नहीं आती
चाँद भी मिरी तरह बे-क़रार लगता है
हर इक से मैंने की थी जिसकी वकालत
मिरे दुश्मन का वो भी तरफ़दार लगता है
सोचती हूँ उन्हें दे दूँ तोहफ़े में मरहम
जिन्हे तीर सा मिरा अश’आर लगता है
त्रिशिका श्रीवास्तव धरा
कानपुर (उत्तर प्रदेश)