पेपर वाला
पेपर वाला
(छंदमुक्त काव्य)
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देखा था मैंने गौर से उनकी नज़रों में ,
कुछ हसरतें शेष बची थी उसमें,
सिरहाने रखकर गठरी समाचार पत्रों को,
अपलक निहारता,
असंख्य तारों से झिलमिलाते आकाश को।
सोचता वो _
गाँव की खामोश रातें,
चैन से सोता रहा था ममता के आगोश में।
कभी देखा नहीं था उसने,
अंधियारे के उस पार का सच।
खींच लायी थी किस्मत यहाँ,
महानगर की चकाचौंध रोशनी में।
नौकरी की तलाश में,
पेट की आग बुझाने की जुगाड़ में,
कर दिया खुद को किस्मत के हवाले।
नित ढोता पेपरों के बंडल को,
भोर का तारा कहीं दिख न जाए,
इससे पहले ही न्यूज पेपर की गठरी खोल,
पेपर के अंदर पृष्ठ पर ,
विज्ञापन पृष्ठों को लगाता।
फिर पेपर को अलग-अलग बंडलो में सजा,
साइकिल के कैरियर पर बांधे,
फर्राटे भरता गली-गली,मोहल्ले-मोहल्ले ,
बंद दरवाजे के अंदर पेपर सरकाता।
अपनी गतिविधियों में मग्न,
उसे पता भी नहीं चलता कि,
तिमिर कालिमा कब छंट गयी,
और पूरब में अरुणाभ का नारंगी गोला,
कब सामने से आकर चला गया।
एक दिन की बात थी,
बुखार से तप रहा शरीर था,
कर्तव्यपथ विचलित हुआ था,
पर दुसरे ही दिन तंगदिल पाठकों की दुत्कार से,
मन आहत हुआ था किस कदर?
सोचता वो_
इस इन्टरनेट के जमाने में,
ई-न्यूज पेपर का प्रचलन कितना बढ़ गया है,
फिर तो पाठकों की दुत्कार को ,
सहन करने में ही भलाई है।
कैसे उठा पाऊंगा मैं घर परिवार का खर्च,
यदि ये पेशा भी हाथ से चला गया।
और उन हसरतों का क्या होगा?
जो सिरहाने में पेपर की गठरी को दबाये,
प्लेटफॉर्म की सीढ़ी के कोने पर,
पलकें मुंद अक्सर देखा करता है ये मन_
संतानों की अच्छी परवरिश और शिक्षा का..!
कहीं किस्मत फिर से न फिसल जाये,
और लाड़ला सुत कहीं पेपरवाला न बन जाए……?
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि –०१/१०/२०२२
आश्विन,शुक्ल पक्ष ,सप्तमी ,रविवार
विक्रम संवत २०७९
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