पेड़
मत छीनों मुझसे हरियाली
मेरी छाया सबको प्यारी
रो रो कर मैं रूदन हूँ करता
वार कुल्हाड़ी का जब पड़ता
मेरे कष्ट का मर्म भी समझो
इस तरह मत काटो मुझको
किस तरह बादल ने सींचा
नन्हा सा अंकुर जब फूटा
खूब माली ने मुझे सहलाया
फला फूला तब मन को भाया
फल फूल मेरे सब मीठे मीठे
खा कर सबका मन हर्षाया
भूल गए क्या छाँव सुहानी
मर गया क्या आँखों का पानी?
मत काटो मत फूंको मुझको
पिता सा साया दूँगा तुझको
सबका भला किया करता हूँ
फल और छांव दिया करता हूँ
मूक बधिर ना समझो मुझको
इस तरह ना लूटो मुझको।
कहाँ पाओगे शीतल छाया?
गर्मी से जब तपेगी काया…
राह मुसाफिर जब भटकेगा
कैसे शांत क्षुदा करेगा?
एक बार तो फिर से विचारो
स्वच्छ श्वास तनमन में धारो।
मुझसे ही जीवन हो पाते
च्छेदन कर क्यों, मुझे रूलाते?
निधि भार्गव