पेंशन पर कविता
रोने लगता यदि लोकतंत्र, निराधार नेतृत्व हो जाता है
भार साधने वालों का ही, जब भार बड़ा हो जाता है
यहाँ नाम बताकर सेवा का, सांसद पांच पेंशन पाता है
करने लगता हैं नए उधोग, नेता व्यापारी बन जाता है राजनीति से सेवा का सब, भाव समाप्त हो जाता है
तब हल्कू मर जाता जाड़े से, हामिद भूँखा सो जाता है
होकर पेश वेतन का विल, बिन पढ़े पास हो जाता है
हँसने लगते है सफेदपोश, संसद में ठहाका लगता है
कानून बनाने वालों का जब, वेतन भत्ता बढ़ जाता है
जो बिना बात चिल्लाते थे, मुँह उनका न खुल पाता है
छुट्टी बिन हो गयी देर कभी, तुरंत तस्करा पड़ जाता है
चक्कर कटते हैं दफ्तर के, जूते का तला घिस जाता है
तुम रहो वर्ष भर घर अपने, फिर भी वेतन आ जाता है
कलम न चलती खबरी की, जज भी तुमसे घबराता है
सैनिक लड़ता सीमाओ पर, प्रिया का यौवन जाता है
करती करुण विलाप ममता, आँचल सूना हो जाता है
लड़ते-लड़ते दुश्मन से जब, तरुण शहीद हो जाता है
मिलते है केवल अशोक पत्र, पेंशन तक नही पाता है
रोने लगता यदि लोकतंत्र, निराधार नेतृत्व हो जाता है
भार साधने वालों का ही, जब भार बड़ा हो जाता है
नोट- नही चाहिए पेंशन बस एक अंतिम निवेदन सुन लीजिए-
एक रसोई खुला दो संसद सी, क्या सुनते हो गण के राजा।
दस रुपये में सबका पेट भरें,सब भोज मिलें ताजा-ताजा।।