पूर्व पर पश्चिम का लिबास कैसा विरोधाभास ?
कविता
पूर्व पर पश्चिम का लिबास
कैसा विरोधाभास ?
श्रद्धा हो गयी लुप्त
रह गया केवल् श्राद्ध
आभार पर हो गया
अधिकार का हक
सम्मान पर छा गया
अभिमान नाहक्
रह गया सिर्फ
मतलव का साथ
कैसा विरोधाभास
चेतना मे है सिर्फ स्वार्थ
भूल गये सब परमार्थ
रह गये रिश्ते धन दौलत तक
मैं हडप लूँ उसका हक
प्रेम प्यार सब कल की बातें
आदर्शों का हो गया ह्रास
कैसा विरोधभास
पूर्व पश्चिम जब एक हो गये
ना रही शार्म ना रहा लिबास
ना रही मर्यादा
न रिश्तों का एहसास
वेद उपनिश्द सब धूल गये
रह गया बाबाओं का जाल
ओ नासमझो
उस सभ्यता को क्यों अपनायें
जो कर दे पथ से विचलित
इसके दुश्परिणाम से
तुम क्यों नहीं परिचित
रह्ने दो पूरब पर पूरब का लिबास
जिसमे भारत की संस्कृ्ति की है सुबास