Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
19 Oct 2022 · 8 min read

*पुस्तक समीक्षा*

पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : रवि की कहानियॉं (भाग 1 तथा भाग 2 )
प्रकाशन का वर्ष : भाग एक 1990 , भाग दो 1998
(संयुक्त समीक्षा)
लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
समीक्षक : डॉ ऋषि कुमार चतुर्वेदी (अवकाश प्राप्त विभागाध्यक्ष, राजकीय रजा स्नातकोत्तर महाविद्यालय, रामपुर, उत्तर प्रदेश)
_________________________
रवि की कहानियॉं (भाग-1 तथा भाग-2 की संयुक्त समीक्षा)
_________________________
रवि की कहानियॉं भाग 1 का समर्पण गिंदौड़ी देवी के प्रति है, जिन्होंने एक बार दरवाजे पर आए फकीर को आटा देने के लिए रवि को भेजा और रवि ने उनसे यूॅं ही पूछ लिया- “क्या यह भी कह दूॅं कि आटा नानी ने भेजा है ?”और फिर नानी का तत्क्षण उत्तर -“नहीं, अपना नाम कहने से दान जाता रहता है । “-फिर इस उत्तर के प्रकाश में रवि का यह चिंतन -“बात छोटी है, मगर आज जब मैं भारत में दानशीलता की अट्टालिकाओं में कुंडली मारे बैठे यशलिप्सा के दानवी अट्टहास को देखता हूॅं, मुझे नानी की सादगी में छिपे उनके विचारों की महानता की सचमुच बहुत याद आती है।”
जीवन के घोर यथार्थ के बीच टिमटिमाती आदर्श की एक नन्हीं दीपशिखा, यशलिप्सा के पैशाचिक अट्टहास के बीच वह छोटा सा वाक्य ! भाग-1 की कहानियों का मूल आधार यही है। इसीलिए इसकी प्रायः हर कहानी में एक पात्र ऐसा है जो सत्य की विजय के लिए युद्धरत है। यह पात्र कहीं सांप्रदायिकता के खिलाफ खड़े हैं, कहीं बूथ कैपचरिंग की दानवता से लड़ रहे हैं, कहीं कोई नारी अपनी गर्भस्थ बालिका की रक्षा के लिए चीख रही है, तो कहीं पुत्री का पिता लड़केवालों द्वारा अपनी पुत्री की नुमाइश बनाए जाने के विरुद्ध दृढ़ता पूर्वक खड़ा दिखाई देता है। कहीं अपने पुत्र एवं पुत्रवधू की उपेक्षा के कारण नारकीय जीवन जी रहे पिता को उनका वकील मित्र अपनी कूटनीति के बल पर उबारता मिलता है तो कहीं गरीब मरीजों के लिए भगवान बनकर अवतरित हुए डॉक्टरों के दर्शन होते हैं । कहीं सामान्यतः निर्मम प्रतीत होने वाले व्यक्ति में उस निरीह मुर्गे के प्रति अचानक उमड़ती करुणा है जो अगले ही क्षण उसके सामने थाली में परोसा जाने वाला था और कहीं सुदर्शन की कहानी के बाबा भारती की तरह सेठ दीनानाथ की आस्था प्रवंचना का शिकार होने पर भी अडिग खड़ी दिखाई देती है। कहीं-कहीं इन कहानियों के पात्र बेचारगी के भाव से सत्य की पराजय झेलने के लिए भी विवश होते हैं । स्वातंत्र्य संग्राम में वास्तविक बलिदान करने वाले लोग हतप्रभ होकर देखते हैं कि कल तक उन पर डंडे बरसाने वाले और अंग्रेजों के पिट्ठू रहे लोगों ने खादी के निर्मल परिधान पहन कर फिर सत्ता हथिया ली है। बूथ कैपचरिंग के दौरान निर्मम हत्याऍं करने वाले लोग अपने विजयी नेता की बगल में हारों से लदे दिखाई देते हैं । व्यासपीठ से प्रवचन करने वाले धर्माचार्य मालपुए खाकर व्रत पर और चढ़ाने के लिए सौदेबाजी करके अपरिग्रह पर उपदेश करते हैं । इन कहानियों में ऐसे पुत्र भी हैं जो थोड़े से धन के लालच में अपने पिता के द्वारा दिए गए वचन को तोड़ देते हैं और ऐसे पुत्र भी हैं जो अपने पिता की इस धनलिप्सा का प्रायश्चित करते हैं। इन कहानियों की रचना करते हुए रवि को अपनी नानी का वह कथन याद है, इसीलिए उनकी “दान का हिसाब” की रामदुलारी जब भगवान के यहॉं पहुॅंचती है तो पाती है कि उसकी यशलोलुप दानशीलता पुण्य के खाते में नहीं लिखी गई है । नानी का वह वचन रवि को भाग-2 की कहानियों में भी याद है ।
भाग-2 में रवि की दृष्टि अधिक सूक्ष्म और व्यापक हुई है उन्होंने देखा है कि न्याय-तुला की डंडी कहॉं एक ओर को झुकती है, सरकारी योजनाऍं कैसे नारों में तब्दील हो जाती हैं, शासक अपने निहित स्वार्थों के लिए कैसे पक्षपातपूर्ण कानून बनाते हैं, चुनाव के बाद मंत्री जी कैसे निगाहें फिर लेते हैं, यशलोलुपता मनुष्य को कितना कुत्सित बना देती है, तथाकथित स्वार्थ कहॉं परमार्थ हो जाता है और तथाकथित परमार्थ कहॉं घोर स्वार्थ में बदल जाता है ।
इन कहानियों में रवि ने समाज को जिस तटस्थ दृष्टि से देखा है, वह उन लोगों को मयस्सर नहीं जो किसी पार्टी या विचारधारा के झंडे के नीचे बैठकर लिखते हैं । रवि जीवन को अपनी निर्मल दृष्टि से देखते हैं। वह किसी वाद के प्रति नहीं, संपूर्ण और समग्र जीवन के प्रति प्रतिबद्ध हैं। उदाहरण के लिए “भोगा हुआ यथार्थ” कहानी को लें। यदि कोई जनवादी लेखक इस कहानी को लिखता तो वह इसे वहीं समाप्त कर देता जहॉं श्रम-अदालत के फैसले से सुरेश की नौकरी बहाल होती है क्योंकि कानून के मुताबिक किसी श्रमिक को एक बार नौकरी पर रख लेने के बाद निकाला नहीं जा सकता। जनवादी प्रतिबद्ध है कि वह श्रमजीवी की विजय और उद्योगपति की पराजय दिखाएगा। किंतु रवि प्रतिबद्ध हैं कि वह सच्चाई दिखाऍंगे और सच्चाई यह है कि इस एकपक्षीय कानून ने शोषक को शोषित और शोषित को शोषक बना दिया है और वही श्रमिक जो सेठ के खिलाफ मुकदमा जीता है जब स्वयं उद्योगपति बनता है तो मजदूरों को स्थाई नौकरी नहीं देना चाहता क्योंकि ऐसा करने से उनके कामचोर और अशिष्ट बन जाने पर भी उन्हें निकाला नहीं जा सकेगा । दूसरी कहानी है, “छात्रवृत्ति” । इसमें सरकार की उस नीति पर करारी चोट है, जिसके अनुसार आर्थिक स्थिति के आधार पर नहीं, जाति और धर्म के आधार पर छात्रवृत्तियॉं दी जाती हैं । एक गरीब परिवार के बालक को छात्रवृत्ति नहीं मिलती, क्योंकि वह बहुसंख्यक वर्ग का है यद्यपि उसके पास जूते खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों को मिलती है, यद्यपि उन्हें उसकी उतनी जरूरत नहीं है। प्रगतिशील बुद्धिजीवी इस विषय को उठाने में हिचकेंगे, क्योंकि उन्हें डर है कि ऐसा करने से उनकी “सेक्यूलर इमेज” खराब हो सकती है ।
भाग-1 की कहानियों में हमने देखा कि वहॉं सत्य के पक्ष में और असत्य के प्रतिकार में प्रायः कोई न कोई व्यक्ति उठ खड़ा हुआ दिखाई देता है, किंतु भाग-2 की कहानियों में ऐसा नहीं है । इसमें लेखक की दृष्टि यथार्थ पर अधिक केंद्रित है । किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि सत्य या आदर्श का पक्ष उसकी दृष्टि से ओझल हो गया है या अच्छाई पर से उसकी आस्था हट गई है । यदि गहराई से देखा जाए तो इस परिवर्तन का कारण विषयगत न होकर शिल्पगत ही अधिक है । भाग-2 की कहानियों तक आते-आते उसने समझ लिया है कि अच्छे और बुरे दो प्रकार के पात्रों को लेकर कहानी बुन देने से कहानी में प्रचारात्मकता आ जाती है, किंतु वह उतनी प्रभावोत्पादक और मार्मिक नहीं बन पाती । संभवत: इसी समझ के कारण भाग 2 की कहानियॉं अधिक सांकेतिक बन पड़ी हैं और उनकी बुनावट अधिक गफ हुई है। उदाहरण के लिए भाग 1 की कहानी “डूबते सपने तैरती लाशें” में लेखक ने दो प्रकार के पात्रों की कल्पना की है, एक आतंकवादी और दंगाई हैं जिनके सिर पर दूसरे वर्ग के लोगों को मारने का जुनून सवार है और दूसरे उन्हीं के अपने वर्ग के लोग हैं जो अकेले खड़े रहकर उनका विरोध करते हैं और उन्हें सही रास्ते पर लाने का प्रयत्न करते हैं । भाग 2 में एक कहानी है “खबर” , इसमें केवल एक पात्र है -राका- जो आतंकवादियों से मोटी रकम लेकर भरे बाजार में बम विस्फोट करता है और अपने कमरे में लौटकर सपने बुनता है कि किस प्रकार वह अपनी मंगेतर के साथ विवाह करके उन रुपयों से सुखी जीवन व्यतीत करेगा । किंतु थोड़ी ही देर में उसे खबर मिलती है कि उस विस्फोट में उसकी वह मंगेतर भी मारी गई । निश्चय ही पहली की अपेक्षा यह दूसरी कहानी अधिक मार्मिक बन पड़ी है । दोनों ही कहानियों में लेखक का उद्देश्य आतंकवादी हिंसा के दुष्परिणाम दिखाना है, किंतु पहली कहानी अपने विचारों के प्रचार के लिए गढ़ी हुई प्रतीत होती है, जबकि दूसरी अपनी स्वाभाविकता और सांकेतिकता में अधिक प्रौढ़ और परिपक्व है।
सांकेतिकता कहानी का एक अनिवार्य गुण है । इसके लिए यह आवश्यक है कि विचारों की अभिव्यक्ति सीधे-सीधे न होकर स्थितियों और मनोभावों के चित्रण द्वारा हो । इस चित्रण को कितना विस्तार दिया जाए, यह बहुधा लेखक की अपनी रुचि और प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। फिर भी एक सावधान रचनाकार इतना ध्यान अवश्य रखता है कि अनावश्यक विस्तार के कारण रचना उबाऊ न हो जाए और विस्तार इतना कम भी न हो कि कहानी (उसमें चित्रित स्थितियॉं और पात्र) पूरी तरह विकसित न हो पाए और उसमें अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न न हो पाए । आज हिंदी में जो कहानी लिखी जा रही है, उसमें अधिकांशतः स्थितियों और मनोभावों के सूक्ष्म चित्रण द्वारा प्रभाव उत्पन्न करने की प्रवृत्ति अधिक दिखाई देती है। इसीलिए उसका आकार भी बड़ा होता है और उसकी सांकेतिकता भी सघन होती है । रवि ने अपनी कहानियों के लिए विस्तार का यह रास्ता नहीं चुना है। उनकी कहानियों का आकार चार-पॉंच पृष्ठ से अधिक नहीं होता । वह सूक्ष्मतम विवरणों में नहीं जाते, न स्थितियों को बारीकी के साथ बुनते हैं और न मनोविश्लेषण की गहराइयों में उतरते हैं । फिर भी अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न करने के लिए और पाठक तक अपने अभिप्रेत को सफलतापूर्वक पहुॅंचाने के लिए आवश्यक विस्तार उनकी कहानियों में रहता है -जितने कम से कम में काम चल जाए उतना । “एक जीवन एकाकी” और “एक शिक्षक यह भी” इसी प्रकार की कहानियॉं हैं। इनमें ऐसा नहीं लगता कि स्थितियों और मनोभावों के चित्रण में कुछ छूट गया है । किंतु “छात्रवृत्ति” जैसी कहानियों में यह कमी दिखाई देती है और लगता है कि कुछ और विस्तार देकर कहानी को अधिक सशक्त बनाया जा सकता था, विचारों को सीधे-सीधे न देकर उन्हें कहानी के माध्यम से ही ध्वनित किया जा सकता था ।
यदि कहानी फैंटेसी की शैली में नहीं लिखी जा रही है तो आवश्यक है कि घटनाओं और स्थितियों की कल्पना में इस बात का ध्यान रखा जाए कि वह संभव और स्वाभाविक हों । रवि इस संबंध में प्रायः सावधान रहे हैं। “खबर” कहानी का अंत आकस्मिक अवश्य है किंतु अस्वाभाविक नहीं । किंतु “लक्ष्मीनारायण ग्राम मंदिर” कहानी का अंत पाठक के मन में प्रश्न उत्पन्न किए बिना नहीं रहता कि क्या ऐसा हो सकता है ? लक्ष्मी नारायण मंदिर की पक्की इमारत जमीन में मिल गई, तो गॉंव के कच्चे मकानों का क्या हुआ होगा, वह भी अवश्य गिरे होंगे और जनधन की हानि भी पर्याप्त मात्रा में हुई होगी । फिर उसकी चिंता से बेखबर ग्रामवासी पंडित जी के चारों ओर इकट्ठे होकर भजन गाने बैठ जाऍं, यह कैसे संभव है ? स्पष्ट ही यहॉं कहानी की विश्वसनीयता आहत हुई है ।
हिंदी में व्यंग्य साहित्य यद्यपि एक स्वतंत्र विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है और वह निबंध के ही अधिक निकट पड़ता है, किंतु हास्य-व्यंग्य प्रधान कहानियों की परंपरा भी काफी पुरानी है । प्रेमचंद की “मोटे राम की डायरी,” “ढपोरशंख” तथा “लाटरी” इसी प्रकार की कहानियॉं हैं। हरिशंकर परसाई ने जहॉं व्यंग्य निबंधों के क्षेत्र में ख्याति अर्जित की, वहीं “भोलाराम का जीव” जैसी व्यंग्यात्मक कहानियॉं भी लिखीं। रवि भी एक अरसे तक अच्छे व्यंग्य-निबंध लिखते रहे । प्रस्तुत संकलन में “साक्षरता रैली” और “बुरे फॅंसे लड़की वालों को बुलाकर” कहानियॉं भी व्यंग्य की दृष्टि से सफल बन पड़ी हैं। “स्वार्थ और परमार्थ” अपनी विचार-प्रधानता और कहानीपन या सांकेतिकता के अभाव के कारण कहानी की अपेक्षा निबंध के अधिक निकट है ।
रवि की कहानियों को पढ़कर यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वह कहानी लिखने के लिए कहानी नहीं लिखते। अपने आसपास के परिवेश में जहॉं जो कुछ गलत दिखाई देता है, वह उन्हें चुभता है, आहत करता है और लिखने को मजबूर करता है । इसी मजबूरी के चलते रचनाकार के रूप में उनका भविष्य उज्ज्वल है । सच्चा रचनाकार अपनी हर रचना के बाद नया कुछ सीखता है और हर बार सीखे हुए उस नए को अपनी अगली रचना के निखारने में लगाता है । अपने पिछले लेखन को नकारते जाना ही किसी लेखक की प्रगति की निशानी है। इसीलिए किसी बड़े लेखक से जब किसी ने पूछा कि आप की सर्वश्रेष्ठ कहानी कौन सी है ? तो उसका उत्तर था “वह अभी लिखी नहीं गई है”। मेरी कामना है कि रवि भी आज ही नहीं, आज से 10 – 20 वर्ष बाद भी यही उत्तर देते रहें ।
दिनांक 10-10-98
ऋषि कुमार चतुर्वेदी

164 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
Books from Ravi Prakash
View all

You may also like these posts

अमृत वचन
अमृत वचन
Dinesh Kumar Gangwar
गुरु वह जो अनंत का ज्ञान करा दें
गुरु वह जो अनंत का ज्ञान करा दें
हरिओम 'कोमल'
मत रो मां
मत रो मां
Shekhar Chandra Mitra
जय अम्बे
जय अम्बे
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
खुश रहें मुस्कुराते रहें
खुश रहें मुस्कुराते रहें
PRADYUMNA AROTHIYA
महानगरीय जीवन
महानगरीय जीवन
लक्ष्मी सिंह
दोहा सप्तक. . . . . मोबाइल
दोहा सप्तक. . . . . मोबाइल
sushil sarna
तेरी उल्फत के वो नज़ारे हमने भी बहुत देखें हैं,
तेरी उल्फत के वो नज़ारे हमने भी बहुत देखें हैं,
manjula chauhan
पीड़ा
पीड़ा
DR ARUN KUMAR SHASTRI
नकारात्मक लोगों को छोड़ देना ही उचित है क्योंकि वे आपके जीवन
नकारात्मक लोगों को छोड़ देना ही उचित है क्योंकि वे आपके जीवन
Ranjeet kumar patre
"पुरे दिन का सफर कर ,रवि चला अपने घर ,
Neeraj kumar Soni
“कवि की कविता”
“कवि की कविता”
DrLakshman Jha Parimal
दिन बीता,रैना बीती, बीता सावन भादो ।
दिन बीता,रैना बीती, बीता सावन भादो ।
PRATIK JANGID
"विद्यार्थी जीवन"
ओसमणी साहू 'ओश'
*कांच से अल्फाज़* पर समीक्षा *श्रीधर* जी द्वारा समीक्षा
*कांच से अल्फाज़* पर समीक्षा *श्रीधर* जी द्वारा समीक्षा
Surinder blackpen
किताब का आखिरी पन्ना
किताब का आखिरी पन्ना
Dr. Kishan tandon kranti
टिमटिम करते नभ के तारे
टिमटिम करते नभ के तारे
कुमार अविनाश 'केसर'
हिंदी
हिंदी
संजीवनी गुप्ता
"हमें चाहिए बस ऐसा व्यक्तित्व"
Ajit Kumar "Karn"
उम्मीद
उम्मीद
Dr fauzia Naseem shad
*रामपुर के गौरवशाली व्यक्तित्व*
*रामपुर के गौरवशाली व्यक्तित्व*
Ravi Prakash
चाय-समौसा (हास्य)
चाय-समौसा (हास्य)
गुमनाम 'बाबा'
किसी सहरा में तो इक फूल है खिलना बहुत मुश्किल
किसी सहरा में तो इक फूल है खिलना बहुत मुश्किल
अंसार एटवी
"मैं तैयार था, मगर वो राजी नहीं थी ll
पूर्वार्थ
ज्ञान के दाता तुम्हीं , तुमसे बुद्धि - विवेक ।
ज्ञान के दाता तुम्हीं , तुमसे बुद्धि - विवेक ।
Neelam Sharma
कुछ खामोशियाँ तुम ले आना।
कुछ खामोशियाँ तुम ले आना।
Manisha Manjari
..
..
*प्रणय*
'बेटी'
'बेटी'
Godambari Negi
ज़माने में
ज़माने में
surenderpal vaidya
मेरे अधरों का राग बनो ।
मेरे अधरों का राग बनो ।
अनुराग दीक्षित
Loading...