*पुस्तक समीक्षा*
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : लोकनायक (महाकाव्य)
कवि का नाम : नरेंद्र स्वरूप विमल
प्रकाशक : किंवा प्रकाशन
सी-477 ,सेक्टर 19
बिस्मिल विहार (नोएडा)
पिन 201301 (भारत)
प्रष्ठ संख्या : 160
मूल्य : ₹100
प्रकाशन का वर्ष : अंकित नहीं है किंतु कवि द्वारा समीक्षक रवि प्रकाश को यह पुस्तक 4 जुलाई 1995 को भेंट की गई है।
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समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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लोकनायक महाकाव्य : जयप्रकाश नारायण को सच्ची श्रद्धॉंजलि
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जयप्रकाश नारायण का अनूठा ऋषियों जैसा चरित्र सभी को आकर्षित करता रहा है । भारत की राजनीति में जहॉं एक ओर परतंत्रता काल में जयप्रकाश नारायण समाजवादी आंदोलन के नायक के रूप में उभर कर सामने आए, वहीं दूसरी ओर विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन के प्रति उनका समर्पण तथा राजनीति से मोहभंग जीवन का एक और त्यागमय आयाम कहा जा सकता है । किंतु सबसे अधिक ख्याति जयप्रकाश नारायण को “संपूर्ण क्रांति” आंदोलन शुरू करने से मिली। बिहार से शुरू हुआ यह आंदोलन पूरे देश में फैला । सत्ता-विरोधी वातावरण इसी आंदोलन की देन था । बिहार-आंदोलन की पृष्ठभूमि में ही आपातकाल लगा तथा उस तानाशाही के घटाटोप अंधेरे को चीर कर जनता पार्टी की सरकार 1977 में बनी । इन सब के केंद्र में जयप्रकाश नारायण अर्थात जे.पी. ही थे । गद्य और पद्य में बहुत सी पुस्तकें जयप्रकाश जी के बारे में लिखी गई हैं ।
रामपुर निवासी नरेंद्र स्वरूप विमल ने श्रद्धा-भाव से आपूरित होकर एक महाकाव्य जयप्रकाश नारायण के संबंध में रचा । “लोकनायक” शीर्षक से यह महाकाव्य ज्यादातर प्रष्ठ गद्य-काव्य को समेटे हुए है। इसमें कवि की वैचारिकता सामने आ रही है तथा जयप्रकाश नारायण का लोकनायकत्व मुखरित हो रहा है। गद्य-काव्य में अपनी बात कहने में अधिक स्वतंत्रता लेखक को मिल जाती है । इसका सदुपयोग करते हुए कवि नरेंद्र स्वरूप विमल ने जयप्रकाश नारायण के जीवन का अच्छा चित्रण किया है । किंतु एक कवि के रूप में उनका शिल्प-कौशल उन क्षणों में प्रगट हो रहा है, जो गद्य-काव्य की सह-यात्रा में बराबर साथ साथ चले हैं । एक प्रकार से यह महाकाव्य गेय छंदों का महाकाव्य बन गया है । इनमें जयप्रकाश नारायण के व्यक्तित्व, चरित्र और क्रियाकलापों के साथ साथ उनके विचारों का सुंदर चित्रण देखने को मिलता है । कवि में शब्दों के द्वारा चित्र बना लेने की अद्भुत क्षमता है। बानगी के लिए कुछ पंक्तियॉं देखिए :-
धीर वीर गंभीर सिंधु से ,जेपी भावों से सुकुमार
गौर वर्ण लंबा कद स्थिर, मितभाषी अति श्रेष्ठ विचार
पदचालन था शक्ति संतुलन, हिप्नोटिक उनका प्रभाव
जो भी आया पास कभी भी, भूला अहं हृदय के घाव
(प्रष्ठ 68)
जयप्रकाश नारायण का जैसा चित्र उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने निर्मित किया है, वह वास्तव में जीता-जागता कहा जा सकता है।
परतंत्रता-काल में जब जयप्रकाश नारायण क्रांतिकारी पथ का अनुसरण करते हुए राष्ट्र का नेतृत्व कर रहे थे, उस समय के संदर्भ में कवि ने लिखा है :-
जे.पी. पर इनाम था घोषित, सरकारी इक्कीस हजार
पर वे थे निर्द्वंद्व घूमते, पाकर सब जनता का प्यार
लिखा रक्त से अपना गौरव, भारत का स्वर्णिम इतिहास
वीर शिवा, नेताजी-जैसी वह टूटी जनता की आश
(प्रष्ठ सत्तर)
संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान ही जयप्रकाश नारायण पर लाठियॉं भी बरसाई गई थीं, जिसकी उस समय भी तीखी प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई । कवि ने अपने महाकाव्य में उस पीड़ा को भी शब्द दिए हैं । वह लिखता है :-
चार नवंबर का कठोर दिन, रह-रह कर आता है याद
पुलिस-लाठियॉं जयप्रकाश पर, छाया जन-जन में अवसाद
(प्रष्ठ 87)
उपरोक्त क्रम में ही संपूर्ण क्रांति का बिगुल जयप्रकाश नारायण में बजाया । तब कवि ने पुनः ऐतिहासिक घटना को शब्द दिए :-
पॉंच जून को बिगुल बजाया, क्रांति देश में हो संपूर्ण
पटना में फिर अलख जगाया, स्वप्न किए शासन के चूर्ण
(पृष्ठ 87)
एक विचारक के रूप में कवि ने संपूर्ण क्रांति आंदोलन को “युग की धड़कन” ठीक ही बताया और लिखा है :-
यह आंदोलन धड़कन युग की, नहीं किसी का है आदेश
नहीं अगर फूटा बिहार से, शुरू करेगा अन्य प्रदेश
(पृष्ठ 90)
जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के गर्भ से जनता पार्टी की सरकार 1977 में बनी । कवि ने सारे घटनाक्रम का बारीकी से निरीक्षण किया । उसी समय नानाजी देशमुख ने केंद्र सरकार में मंत्री-पद को ठुकरा कर साठ वर्ष की आयु में राजनीतिज्ञों के रिटायर होने का अनूठा विचार सामने रखा । कवि ने नानाजी देशमुख की खुलकर प्रशंसा की है। उस ने लिखा है:-
नाना जी ने पर पद त्यागा, जनसेवा जिनका आधार
दायित्वों को जो समझेगा, वह कब चाहेगा अधिकार
(प्रष्ठ 137)
किसी भी महापुरुष के जीवन पर पुस्तक लिखना इतना कठिन नहीं है जितना उसके मन के भीतर प्रवेश करके अंदर की मन: स्थिति पाठकों के सामने प्रस्तुत करना रहता है । इस कार्य को तो जो महानायक के मनोविज्ञान को समझ पाता है, वही स्पष्ट कर सकता है । नरेंद्र स्वरूप विमल ने पुस्तक के अंतिम प्रष्ठों में जयप्रकाश नारायण की आंतरिक पीड़ा को भी समझा और सत्ता के संघर्ष में उनके अकेले पड़ते रहने की वेदना को ठीक ही महसूस किया। क्रांतियों का प्रायः इसी प्रकार से अंत होता है कि वह एक दिन नष्ट हो जाती हैं तथा सत्ता की आपाधापी में उनके आदर्श कहीं खो जाते हैं । कवि ने इन्हीं बातों को अपनी लेखनी से आकार दिया है । उसने कहा है :-
जागरूक जनता ही केवल लोकतंत्र की है आधार
सत्ता तो बहरी होती है, उसे कहॉं कब किस से प्यार
आपाधापी के इस युग में, सब कुछ लगती मृगतृष्णा
यह नाजुक पल बीत गए यदि, जागेगी फिर कब करुणा
कैसे समझाऊॅं जनता को, मैं उनका हूॅं उनके साथ
कलह पूर्ण यह राजव्यवस्था, बॅंधे हुए हैं सबके हाथ
(पृष्ठ 142 – 143)
अपने ही द्वारा शुरू की गई संपूर्ण क्रांति को विफल होते देख कर एक महानायक को कैसा लगता होगा, इस बारे में स्वयं जयप्रकाश नारायण के मुख से कवि ने उनकी पीड़ा को अभिव्यक्त किया है :-
आज अकेला हूॅं मैं खुद में, समय कहॉं जो आए पास
सारी आशाऍं मुरझाए, रहता है मन बहुत उदास
(पृष्ठ 146)
दलबदल के बारे में भी कवि ने तीखे शब्दों में अपनी बात कही है। यह विषय ही सत्ता-लोलुपता का है । अतः कवि की लेखनी बिल्कुल सही तौर पर धारदार हुई है । कवि ने लिखा है :-
जिस दल से चुनकर जाते हैं, बदल डालते हैं तत्काल
जैसे बैल-भैंस के लगवाई, जाती छटमासिक नाल
(पृष्ठ 155)
इसमें बैल और भैंस के हर छठे महीने पैरों में नाल लगवाने की तर्ज पर चुने हुए प्रतिनिधियों को दल बदलने में पारंगत होने की जो तुलना की गई है, वह भारत की राजनीति का एक कटु सत्य है। दुर्भाग्य से संपूर्ण क्रांति केवल अपने तात्कालिक उद्देश्यों में ही सफल हो पाई। आपातकाल पर विजय प्राप्त करना तथा एक लोकतांत्रिक सरकार का गठन इसका अपने आप में बहुत बड़ा कार्य था परंतु क्रांति का जो विशाल और विराट स्वरूप होता है, उसे प्राप्त करने में यह विफल रही ।
जयप्रकाश नारायण का जब 8 अक्टूबर 1979 को 77 वर्ष की आयु में निधन हुआ, तब यह राष्ट्र की महान क्षति थी । कवि ने उस समय का शोक से भरा हुआ मार्मिक चित्र खींचा है :-
पंद्रह फिट ऊॅंची शैया पर रखा हुआ निर्जीव शरीर,
फूल-पंखुड़ी-मालाओं से छिपा रहे सब मन की पीर
युवा वृद्ध बच्चे नर नारी, नेता कृषक दलित मजदूर
भेद कहॉं प्राणी-प्राणी में,
कितने दुखी और मजबूर
(प्रष्ठ 157)
जयप्रकाश नारायण के संबंध में कवि का आकलन उन्हें भारत का सम्राट बताने के संबंध में बिल्कुल सही है। पंक्तियां देखिए :-
यह बिहार का अमर-दीप है, सारे भारत का सम्राट
सिद्ध किया कर्मों से जिसने, लघु में जीवित अमित विराट
(पृष्ठ 158)
जयप्रकाश नारायण किसी पद पर नहीं रहे लेकिन वह भारत के वास्तव में बिना मुकुट धारण किए हुए सम्राट थे । एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने भारत का नव-निर्माण किया और उसे लोकतंत्र के पथ से विचलित होने से बचाया। जयप्रकाश नारायण के सपनों पर आधारित समाज-राष्ट्र की रचना का कार्य अभी बाकी है । उनकी विचारधारा अत्यंत मूल्यवान है। कवि ने महाकाव्य के अंत में उनके संबंध में बिल्कुल सटीक टिप्पणी की है:-
नहीं संस्था छोड़ी कोई, बस विचारधारा छोड़ी
जिधर बढ़े पीछे कब देखा, भावों की भाषा मोड़ी
राख बची है कुछ स्वप्नों की, कुछ अंतर में दुखते भाव
शायद कर पाए कुछ पूरा, जयप्रकाश के मन के भाव
(पृष्ठ 160)
जयप्रकाश नारायण के संबंध में लिखित गद्य और पद्य की पुस्तकों में नरेंद्र स्वरूप विमल द्वारा लिखित “लोकनायक” महाकाव्य को प्रथम पंक्ति में सम्मान के साथ रखा जाएगा ।
नरेंद्र स्वरूप विमल का जन्म 10 जून 1936 को नवाबपुरा जिला मुरादाबाद(उ.प्र.) में हुआ था । रामपुर में जैन इंटर कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता के तौर पर आप रामपुर के साहित्यिक-सामाजिक-लोक जीवन में रच-बस गए थे । आदर्श कॉलोनी, रामपुर में रहते हुए आपका साहित्य जगत में एक विशिष्ट स्थान रहा । आपका एक प्रबंध-काव्य “लंकेश” प्रकाशित हो चुका है । मुक्तक संग्रह, उपन्यास, कहानी संग्रह और निबंध संग्रह इस पुस्तक के प्रकाशन के समय प्रकाशन की प्रतीक्षा में थे। आपकी प्रभावशाली लेखनी को सौ-सौ प्रणाम।