पुस्तक की व्यथा
पुस्तक की व्यथा
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आज व्यथा पुस्तक की सुन लो
कैसा यह कलयुग आया है?
खोज-खोज गूगल में सब हल
मानव ने मान घटाया है।
ज्ञान स्रोत गूगल बन बैठा
जिज्ञासा का तोड़ यहाँ है,
पल में हल जो ढूँढ निकाले
दूजा कोई जोड़ कहाँ है?
बोझ तले भारी बस्तों के
दुत्कारी जाती हैं पुस्तक,
आज पढ़े दुनिया पोथी बिन
मन में सिसक रही हैं पुस्तक।
वैज्ञानिक युग की पूछो तो
गूगल रुत्बा निगल गया है,
याद ज़हन में ज़िंदा फिर भी
वक्त हाथ से निकल गया है।
नीम तले बैठक चलती थीं
खोल पृष्ठ जुम्मन पढ़ते थे,
हास्य-व्यंग्य की कविता सुनकर
बैठे लोग हँसा करते थे।
पुस्तक अदली-बदली करके
अगनित रिश्ते नित बनते थे,
बंद किताबों के भीतर तो
कितने ही प्यार पनपते थे।
जिल्द चढ़ाकर इसके तन पर
पूरा कुनबा पढ़ लेता था,
दूजे को फिर बेच किताबें
आधे दाम झटक लेता था।
कल तक लोगों के जीवन में
सुुख-दुख साँझा ये करती थीं,
फ़ुर्सत के लम्हों में सबके
हाथों की शोभा बनती थीं।
आज नहीं है कद्र कहीं भी
बेबस लाचारी ढोती हैं,
बंद पुस्तकालय में प्रतिपल
पीड़ित सब पुस्तक रोती हैं।
पिंजरबद्ध खगों-सी हालत
बीते कल को तरस रहीं ये,
झाँक रहीं सब बंद पटों से
राह देखतीं बरस रहीं ये।
स्वरचित/मौलिक
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”
वाराणसी (उ. प्र.)
मैं डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना” यह प्रमाणित करती हूँ कि” पुस्तक की व्यथा” कविता मेरा स्वरचित मौलिक सृजन है। इसके लिए मैं हर तरह से प्रतिबद्ध हूँ।