पुस्तकों की पुस्तकों में सैर
पन्नों पर रची कल्पना सृष्टि
उड़ती परियां, वाचाल पक्षी और दिव्य दृष्टि !
एक दिन छोड़कर माया
प्रवेश हुई पुस्तक में काया |
बैठी छांव कल कल्पवृक्ष के
और पारस से स्वर्ण बनाया |
चंद्रकांता की तिलस्म में खो गए
दुष्यंत को भी मुद्रिका थमाया |
सिंदबाद के संग सागर की लहरों पर
चतुर्दिक शौर्य की पात्र बने |
मित्र अभिन्न कुछ चढ़े कसौटी,
खैर पुस्तक बंद कर जो मैं लौटी,
सब वैसे ही मिला तथ्यता के यथार्थ धाम,
पर हृदय में समाए थे ग्रंथ तमाम !