“पुष्प की वेदना”
“पुष्प की वेदना”
================
कलियों से बनते पुष्प,
जीने की अभिलाषा लिए हुए,
कंटको मध्य मुस्कुराना सीखा,
कांटों से चोट खाकर,
जब सर-सर तेज हवा चली,
डालियां मदमस्त झूमने लगी,
पंखुड़ियां छिन्न-भिन्न हुई,
पुष्प टूटकर बिखरने लगे,
तब सहसा सोचने लगा पुष्प —-
हमारा अस्तित्व ही क्या?
कोई तोड़ ले, फेक दे हमें,
आज मेरी बारी, कल सबकी,
माली आकर उपवन में,
कलियों को तोड़ ले जाता है,
कभी राहगीर तलाशते हैं,
शेष बचे फूलों के डाल,
फिर चढ़ जाते है सुर की वेदी,
या बन जाते है गले का हार,
महत्वहीन हो जाते हैं,
जब धरती पर बिखर जाते हैं,
कोई पैरो तले कुचल देता है,
कोई माथे से लगा लेता है।।
वर्षा (एक काव्य संग्रह) से/राकेश चौरसिया