पुश्तैनी मकान…..
मैं अपने वंशजों की ठाँव हूँ।
मैं गाँव का पुश्तैनी मकान हूँ॥
छोटे बच्चों की किलकारियां
कभी मेरे आंगन में गुँजती थी,
चहकती गौरैया की दुनिया
मेरे घर के मुंडेरों पर बसती थी,
चाहत के उड़ान में निकले
मैं दुर हुए परिंदों की नीड़ हूँ।
मैं गाँव का पुश्तैनी मकान हूँ॥……
माता-पिता, दादा-दादी का
स्नेह रस धार प्लावित थी,
सदा विराजती माँ अन्नपूर्णा
मलयज शीतल ब्यार थी,
संस्कार के बिखरे सौरभ का
मैं तप त्याग का आलय हूँ।
मैं गाँव का पुश्तैनी मकान हूँ॥……
चौकी और चारपाईयों पर पड़ी
रंग बिरंगी चादरें इतराती थी,
बड़े चाव से छोटे बच्चों को
दादी किस्से अपनी सुनाती थी,
बड़े बुजुर्ग और अपनों का
मैं सबके खुशियों का पूर हूँ।
मैं गाँव का पुश्तैनी मकान हूँ॥……
उग आयी है नागफनीयाँ
मेरे सुनहरे से आँगन में,
बनाया है ठौर चमगादड़ों ने
घर के मजबूत शह्तीरों में,
विरान पड़े हर कमरे का
मैं बिखरा पड़ा समान हूँ
मैं गाँव का पुश्तैनी मकान हूँ॥……
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