पुरुष का बलात्कार।
पुरुष का बलात्कार।
जीवन के इस जंजाल में सबको उलझना पड़ता है।
समस्या कभी पुरुष स्त्री नही देखती।
पुरुष भी घुटता है,पिसता है,टूटता है,बिखरता है।
आँखों मे आंसू ला नही सकता।
पत्थर की भांति कुछ कह नही सकता।
हर संवेदना छुपाना भली भांति जानता है।
कितना भी सताया जाय, मुस्कुराना जानता है।
कई बार जला है दहेज की आग में।
हा वही दहेज़ जो उसने कभी मांगा ही न था।
पारिवारिक जिम्मेदारी बचपन से सर पे उठाता है।
मजबूती के ठप्पा लगा कर बेचारा जीता जाता है।
गर कभी बिस्तर पर थोड़ा थककर कमजोर पड़ जाता है।
नामर्दी का बोझ जीवन भर उठाता है।
कभी कभी जो आंखों से थोड़ा ग़म बहता है।
देख रोते उसे सारा जमाना कहता है,मर्द को दर्द कहाँ होता है।
पुरुषों का बलात्कार सिर्फ बिस्तर पर नही, खुले समाज में होता है।
एक बेबुनियाद आरोप को जीवन भर सहता जाता है।
कौन कहता है पुरुष सिर्फ़ हुक़ूमत चलाता है।
कहाँ छुपे कहाँ रहे, हर जगह अब डर सताता है।
ये संसार अब मर्द को, सिर्फ़ चुप रहना सिखाता है।