पुरानी यादें
मुकम्मल एक चिराग़ था मय्यसर
रोशनी के लिए,
यहाँ तो एक चिराग़ नें श्मशान बना डाला।
कहाँ ढूँढती फिरूँ वो लौ जो मुझमें
थोड़ी सी रोशनी भर दें,
यहाँ तो हर शख़्स फ़रियादी बना बैठा है।
आँखों में बेचैनी, शब्दों में थकान है
किस किस को जाकर हाल बताऊँ
यहाँ तो हर कोई तलबगार है।
सुनने का जिगर अब रहा नहीं
झूठ सच में कोई फ़र्क़ अब बचा नहीं
किससे ही आरज़ू और शिकायतें
यहाँ तो हर कोई अब बेगाना बना बैठा है।
अपने ही सुकून की तलाश में ताउम्र
तेरे साये में निकाल दिये
अब तुम ही बताओ कहाँ जाऊँ अब
अब तो कुछ और ही दौर निकला है।
बेपरवाह आज़ाद किसे मैं भाई थी याद नहीं
पर हाँ एक सूखा गुलाब आज भी किताब में दबा रखा है।
कभी कभी अतीत के पन्ने पलटने
पर सुकून भी मिलता है
कोई अपना मिलता है, बस मुझसे मिलता है
वो बेबाकियाँ और तल्ख़ मिज़ाज याद आता है
वो अपना सचमुच वाला किरदार याद आता है।
आज के दौर में वो पागलपन कहाँ
वो बेचैनी कहाँ
घंटों बस स्टैंड पर वक़्त जाया करने वाले वो साथी कहाँ
अब वो शामें कहाँ अब वो चैन कहाँ ।
डॉ अर्चना मिश्रा