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21 Dec 2022 · 17 min read

[ पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य ] अध्याय- 1.

फ्रांसीसी बालक जान लुई कार्दियेक तीन माह का था तभी अंग्रेजी बोलने लगा। अमेरिका का दो वर्षीय बालक जेम्स सिदिम छह विदेशी भाषायें धड़ल्ले से बोल सकता था। इंग्लैंड के एक श्रमिक पुत्र जार्ज को चार वर्ष की आयु में कठिनतम गणित का प्रश्न हल करने में दो मिनट लगते थे। जो लोग पुनर्जन्म का अस्तित्व नहीं मानते, मनुष्य को एक चलता-फिरता पौधा भर मानते हैं, शरीर के साथ चेतना का उद्भव और मरण के साथ ही उसका अंत मानते हैं वे इन असमय उदय हुई प्रतिभाओं की विलक्षणता का कोई समाधान नहीं ढूँढ़ पायेंगे। वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी सभी अपने प्रगति क्रम से बढ़ते हैं, उनकी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष विशेषताएँ समयानुसार उत्पन्न होती हैं। फिर मनुष्य के असमय ही इतना प्रतिभा संपन्न होने का और कोई कारण नहीं रह जाता कि उसने पूर्व जन्म में उन विशेषताओं का संचय किया हो और वे इस जन्म में जीव चेतना के साथ ही जुड़ी चली आई हों।

मरणोत्तर जीवन और उसकी सच्चाई :
पालटेराजेस्ट फेमामेना, आडिटरी हेलसिनेशन, फिजीकल ट्रांसपोजीशन, द्विजिनरी एक्सपीरियेन्स, स्प्रितिपाजेशन प्रभृति वैज्ञानिक कसौटियों पर कसे गये घटनाक्रम एवं अनुभवों द्वारा आत्मा और शरीर की भिन्नता के अधिकाधिक प्रमाण मिलते जा रहे हैं। शरीर के मरने पर भी आत्मा का अस्तित्व बना रहता है और जीव बिना शरीर के होने पर भी दूसरों के सम्मुख अपनी उपस्थिति प्रकट कर सकता है, इस तथ्य की पुष्टि में इतने ठोस प्रमाण विद्यमान हैं कि उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता। विज्ञान के क्षेत्र की वह मान्यता अब निरस्त हो चली है कि शरीर ही मन है और उन दोनों का अंत एक साथ हो जाता है।
मरने के बाद प्राणी की चेतना का क्या हश्र होता है, इसका निष्कर्ष निकालने के लिए अमेरिकी विज्ञानवेत्ताओं ने एक विशेष प्रकार का चेंबर बनाया। भीतरी हवा पूरी तरह निकाल दी गई और एक रासायनिक कुहरा इस प्रकार का पैदा कर दिया गया, जिससे अंदर की अणु हलचलों का फोटो विशेष रूप से बनाये गये कैमरे से लिये जा सके।
इस चेंबर से संबद्ध एक छोटी पेटी में चूहा रखा गया और उसे बिजली से मारा गया। मरते ही उपरोक्त चेंबर में जो फोटो लिये गये, उसमें अंतरिक्ष में उड़ते हुए आणविक चूहे की तस्वीर आई। इसी प्रयोग श्रृंखला में दूसरे मेंढक, केकड़ा जैसे जीव मारे गये तो मरणोपरांत उसी आकृति के अणु बादल में उड़ते देखे गये । यह सूक्ष्म शरीर हर प्राणधारी का होता है और मरने के उपरांत भी वायुभूत होकर बना रहता है।

टेलीपैथी, प्रीकॉग्नीशन, क्लेयरवायेन्स, ऑकल्ट साइंस, मेटाफिजिक्स प्रभृत वैज्ञानिक धाराओं पर चल रहे प्रयोगों एवं अन्वेषणों से अब यह तथ्य अधिकाधिक स्पष्ट होता चला जा रहा है कि शरीर की सत्ता तक ही मानवी सत्ता सीमित नहीं। वह उससे अधिक और अतिरिक्त है तथा मरने के उपरांत भी आत्मा का अस्तित्व किसी न किसी रूप में बना रहता है। यह अस्तित्व किस रूप में रहता है–अभी उसका स्वरूप वैज्ञानिकों के बीच निर्धारण किया जाना शेष है। इलेक्ट्रोनिक (विद्युतीय) एवं मैगनेटिक (चुंबकीय) सत्ता के रूप में अभी वैज्ञानिक उसका अस्तित्व मानते हैं और ऐसी प्रकाश ज्योति बताते हैं, जो आँखों से नहीं देखी जा सकती। डॉ० रथेन ने इस संदर्भ में जो शोध कार्य किया है, उससे आत्मा के अस्तित्व की इसी रूप में सिद्धि होती है। उन्होंने ऐसी दर्जनों घटनाओं का उल्लेख किया है, जिसमें किन्हीं अदृश्य आत्माओं द्वारा जीवित मनुष्यों को ऐसे परामर्श, निर्देश एवं सहयोग दिये गये जो अक्षरशः सच निकले और उनके लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए।

सर विलियम वेनेट की ‘डेथबैंड विजन्स’ पुस्तक में ऐसी ढेरों घटनाओं का वर्णन है— जिसमें मृत्युकाल की पूर्व सूचना से लेकर घातक खतरों से सावधान रहने की पूर्व सूचनाएँ समय से पहले मिली थीं और वे यथा समय सही होकर रहीं। इसी प्रकार के अपने निष्कर्षों का विवरण प्रो० रिचेट ने भी प्रकाशित कराया है।
यह बात तो वैज्ञानिक भी मानते हैं कि मनुष्य का शरीर कोशिकाओं से बना है। यह कोशिकायें प्रोटोप्लाज्म नामक जीवित अणुओं से बनी होती हैं। यदि प्रोटोप्लाज्म को भी खंडित किया जाए, जो सजीव पदार्थ का अंतिम टुकड़ा होती है और जिसमें चेतना का स्पंदन होता है, तो उसके भी साइटोप्लाज्म और न्यूक्लिअस नामक दो खंड हो जाते हैं। साइटोप्लाज्म कोशिका से काट देने पर मृत हो जाता है पर न्यूक्लिअस अर्थात नाभिक अपनी सत्ता को पुनः विकसित कर लेने की क्षमता रखता है। इस नाभिक के बारे में विज्ञान अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं कर सका है। यहाँ से भारतीय तत्त्व-ज्ञान प्रारम्भ हो जाता है।

शास्त्र कहता है “अणोरणीयान् महतो महीयान” अर्थात यह आत्मा छोटे से भी छोटा और इतना विराट है कि उसमें समग्र सृष्टि नप जाती है। अणु के अंदर समाविष्ट आत्मा की सत्यता का प्रमाण यही है कि जब वह पुन: किसी प्राणधारी के दृश्य रूप में विकसित होती है, तो अपने सूक्ष्म (नामिक शरीर) के ज्ञान की दिशा में बढ़ने लगता है। इसी बात को गीता में भगवान कृष्ण ने इस प्रकार कहा है—

“पार्थ नैवेह नामुत्र, विनाशस्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद दुर्गति तात गच्छति ।।
प्राप्त पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।
अथवा योगिना मेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोक जन्म यदीदृशम् ।।
तत्र तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ।।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः।
जिझासुरपि योगस्य शब्द ब्रह्मातिवर्तते ।।
(६४०, ४१, ४२, ४३, ४४)

अर्थात– (अर्जुन की इस शंका का कि यदि इसी जन्म में योग-सिद्धि नहीं हुई और वासना के किसी उभार से साधक पथभ्रष्ट हो गया, तो वह न तो भोग ही भोग पायेगा, न योगी ही हो पायेगा।)
उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण ने कहा– “हे अर्जुन! उस योग भ्रष्ट साधक के विनष्ट होने का प्रश्न ही नहीं। कल्याण के मार्ग पर पैर बढ़ाने वाले की दुर्गति का प्रश्न ही नहीं। (उसने जितनी दूर तक यात्रा कर ली है, उसके आगे की यात्रा अगले जन्म में करने की प्रेरणा संस्कारों द्वारा उसे प्राप्त होगी। ऐसा योगभ्रष्ट पवित्र एवं श्रीसंपन्न घर में जन्म लेता है या फिर योगियों के ही कुल में वह बुद्धिमान व्यक्ति उत्पन्न होता है। नये जन्म में वह पूर्वदेह के संचित-संस्कारों से बौद्धिक भावनात्मक प्रेरणा पाकर सिद्धि के लिए पुनः प्रयास करता है। पहले किये हुए अभ्यास के कारण वह अवश-सा उसी मार्ग में बढ़ने के लिए विवश होता है।”
इस प्रकार जीवन का प्रवाह अविच्छिन्न गति से आगे बढ़ता है। नाश सिर्फ शरीर का होता है। उस शरीर के माध्यम से आत्मा जिन अनुभवों, गुणों, विभूतियों तथा जानकारियों को संचित करती है, वे सूक्ष्म तथा कारण शरीर के साथ संस्कार रूप में जुड़कर आगे के जन्म में भी काम आते हैं तथा व्यक्ति के जीवन को प्रभावित-निर्देशित करते हैं।
इसीलिए तो ऋषियों ने कहा है- “वाणी को जानने से कोई लाभ नहीं, वाणी को प्रेरित करने वाली आत्मा को जानना चाहिए। गंध को जानकर क्या बनता है, यदि गंध ग्रहण करने वाली आत्मा को नहीं जाना जाता। रूप के ज्ञाता आत्मा को न जानकर रूप को जानने का प्रयत्न व्यर्थ है। जो शब्द सुनता है, उसे जानना चाहिए शब्द को नहीं, अन्य रस के ज्ञान की कामना भी व्यर्थ है। कर्म, सुख-दुःख, काम सुख, पुत्रोत्पत्ति और गमनागमन को जानने से कोई लाभ नहीं, यदि इनके ज्ञाता और साक्षी आत्मा को न जाना जाय हे प्रतर्दन ! मन को जानने की जिज्ञासा भी व्यर्थ है, मननशील आत्मा को जानना चाहिए।”
यह कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् के तृतीय अध्याय में भगवान इंद्र ने प्रतर्दन से कहा– “न वाचं विजिज्ञासीतवक्तारं विद्यात् न गंध विजिज्ञासीत घ्रातारं विद्यात् न मनो विजिज्ञासीत मन्तारं विद्यात् ।”
उपरोक्त संदर्भ में जितना अधिक चिंतन करते उतने ही महत्त्वपूर्ण रहस्य प्रकट होते हैं। ऐसा लगता है कि उनको जाने बिना मनुष्य का यथार्थ कल्याण संभव नहीं। शास्त्रकार का यह कथन कि सुंदर स्वर संगीत, सुगंधित वस्तुएँ, सुंदर भोजन, रति, सुख-दुःख, साधन शृंगार यह सब भौतिक आवरण हैं। इनके बीच घिरी हुई, साक्षी आत्मा को जब तक नहीं जान लिया जाता, यह सारा ज्ञान निरर्थक है। यथार्थ सुख-शांति और बंधन मुक्ति दिलाने वाली आत्मा है, उसको जाने बिना मनुष्य शरीर और पशु कोई अंतर नहीं रह जाता।
प्रमाण, तर्क और विज्ञान-बुद्धि— इस युग का प्राणी कहता है, आत्मा का कोई अस्तित्व संभव ही नहीं, तो जाना किसे जाये? आत्मा नाम की कोई वस्तु इस संसार में है ही नहीं, इस मूढ़ मान्यता के कारण ही भौतिक आकर्षणों का मोह आज संसार में भयंकर रीति से बढ़ता और प्राणिमात्र को संकट, संघर्ष, अशांति, उद्वेग, निराशा, कलह, वैमनस्य, युद्ध, अंतद्वंद्व से जकड़ता जा रहा है।
इसी उपनिषद् के अगले पन्नों में आत्मा के स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपायों का विवेचन किया गया है, पर उसे कहने की अपेक्षा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करना सर्वप्रथम आवश्यक है। प्रमाण, तर्क और वैज्ञानिक तथ्यों की कमी नहीं, यदि बुद्धिजीवी लोग श्रद्धा परायण आत्मा को जानने के इच्छुक नहीं तो प्रमाण परायण आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने में तो झिझक और हिचक न होनी चाहिए।

वैज्ञानिक धारणा के अनुसार कोई भी व्यक्ति जैव-द्रव के सक्रिय परमाणुओं का समूह होता है, जो सारभूत रूप में करोड़ों वर्षों के जीव विकास क्रम की पुष्टि करता है। ये सक्रिय परमाणु सारे शरीर में उसकी अनुभूतियों में और मस्तिष्क में केंद्रित होते हैं, इतना जान लेने के बाद विज्ञान अपने आप से प्रश्न करता है कि इन परमाणुओं की संरचना, गति और अनुभूतियों को रचने वाला, प्रेरणा देने और ग्रहण करने वाला कौन है ? उसका उत्तर होता है— मौन। भारतीय दर्शन वहीं से अध्यात्म का आविर्भाव मानता है और कहता है कि वह आत्मा है, आत्मा। उसे ही जानने का प्रयत्न करना चाहिए।

(( मन ही सब कुछ नहीं ))
डॉ० टिमोदी लियरी ने मन को ही सब कुछ माना और अध्यात्म की सत्ता वहीं तक स्वीकार की। मन एक रासायनिक तत्त्व है । अन्न के स्वभाव और गुण के अनुरूप उसका आविर्भाव होता है। मनश्चेतना के विस्तार तथा उसकी अभिव्यक्ति के लिए अनेक रासायनिक द्रव्यों का विकास हुआ है। भारतीय तंत्र और तिब्बती तांत्रिक साधनाओं में भी रासायनिक तत्त्वों के आधार पर मनश्चेतना के प्रसार और उसके द्वारा विलक्षण अनुभूतियों और दूरवर्ती ज्ञान को प्राप्त कर लिया जाता है। एलन गिंसवर्ग ने भी उसी की पुष्टि की है और उनका विश्वास है कि जीव-चेतना का अंत मन है, उसके आगे न कोई सूक्ष्म सत्ता है और न कोई अतिमानस ज्ञान । पर अब पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी इन तांत्रिक साधनाओं के आधार पर ही अतींद्रिय और मनश्चेतना से परे किसी ऐसे तत्त्व का अस्तित्व स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया है, जो सर्वद्रष्टा, शाश्वत, मुक्त और स्वेच्छा से भ्रमण और स्वरूप ग्रहण करने वाला है, जो साक्षी चेतन और अपनी इच्छा से विकसित होने वाला है। इस विश्वास की पुष्टि और शोध के लिए हो ‘लीग फॉर स्पिरिचुअल डिस्कवरी की स्थापना हुई है। यह संगठन अनेक घटनाओं के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहा है कि मनश्चेतना से परे भी कोई चेतना तत्त्व इस सृष्टि में विद्यमान है, शरीरधारियों का केंद्र और मूल भी वही है।
हमारे यहाँ यह कहा जाता है कि कथा-कीर्तन, संगीत, भजन, चित्रकला, जप-तप, ध्यान-धारणा के आधार पर मन को एकाग्र करके, कैसे आत्म-तत्त्व की शोध में नियोजित किया जा सकता है। निग्रहीत मन की सत्ता इतनी सूक्ष्म और गतिशील हो जाती है कि उसे कहीं भी दौड़ाया जा सकता है और दूरस्थ स्थान को भी देखा और सुना जा सकता है। मन को जब आत्मा में केंद्रित कर देते हैं तो समाधि सुख मिलता है।

दूसरे देशों में समाधि- सुख की कल्पना तो की गई है, पर उसका कारण और कर्त्ता आत्मा को न मानकर मन को माना जाता है । मन यद्यपि अत्यंत सूक्ष्म सत्ता है, पर वह अन्न की गैसीय स्थिति है, अन्न से रस, रक्त, मांस, मेदा, मज्जा, अस्थि, वीर्य आदि सप्त धातुयें बनती हैं। वीर्य इनमें से स्थूल तत्त्व की अंतिम अवस्था है, वहाँ से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि अंतःकरण चतुष्टय बनते हैं, इनको ज्ञान और मोक्ष का आधार माना गया है अर्थात यह मन के ऊपर अवलंबित है कि वह सांसारिक पदार्थों में घिरा रहे अथवा सूक्ष्म सत्ता को प्राप्त कर समाधि सुख प्राप्त करे। मन तो भी एक रासायनिक तत्त्व ही है, आत्मा नहीं।

अमेरिका के डॉक्टर टिमोदीलियरी ने मन को अंतिम स्थिति माना है और उसी के विस्तार को समाधि-सुख । नशा और कुछ औषधियाँ मनश्चेतना का विस्तार कर देती हैं, जिससे अनेक गुना अधिक शक्ति अनुभव होती है, उस स्थिति में कामजन्य-सुख बहुत बढ़ जाता है। सामान्य स्थिति में भी अपने में शक्ति अनुभव होती है और बड़ा आनंद आने लगता है। वह दरअसल चेतना को निम्नस्तर से उठाकर जगत के मूलभूत तत्त्वों के साथ एकाकार कर देने की क्षणिक स्थिति मात्र है। पर वह उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना आध्यात्मिक साधन। उससे अतिमानस तत्त्व की सत्यता अनुभव की जा सकती है।

इस दिशा में जैकी कैसन के मनो-विस्तारक प्रयोगों का बड़ा महत्त्व है। वे प्रकाश की किरणों को विविध आकृतियों में संयोजित करती हैं और पानी के माध्यम से उन आकृतियों के छाया चित्र किसी पर्दे में प्रक्षेपित करती हैं। उन चित्रों को ध्यानपूर्वक देखने से मनुष्य सम्मोहन की स्थिति में पहुँच जाता है और उसे विचित्र प्रकार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं, इससे भी आत्मा का अस्तित्व प्रमाणित होता है। यह अनुभूति यद्यपि क्षणिक होती है और पाश्चात्य वैज्ञानिक उसे सुख की संज्ञा दे देते हैं, पर यह वस्तुतः उस आत्मा के साथ एकाकार का क्षणिक आवेग है, समाधि सुख तो आत्मा में पूर्ण विलय के साथ ही मिलता है।
सोमरस के संबंध में भारतवर्ष में अनेक तरह की मान्यताएँ प्रचलित है, उसका अलडुअस हक्सले ने बहुत गुणगान किया है। उत्तर योरोप में उसी तरह का एक पेय फ्लाई एगेरिक नामक कुकुरमुत्ते से तैयार किया जाता है। फिजी द्वीप समूह के लोग कावा नामक पेय पीते हैं। एंडियन तराई (अमरीका) के लोग आयाहुस्का नामक पेय पीते हैं, इससे उन्हें दिवास्वप्न जैसी अनुभूतियाँ होने लगती हैं। कई बार इस अवस्था में भविष्य की और मृत आत्माओं की विचित्र और सत्य बात फलित होती हैं। मन उस अवस्था में किसी बड़े तत्त्व के साथ एकाकार होकर ही वह क्षणिक अनुभूतियाँ प्राप्त करता है। वह तत्त्व यदि है तो उसे आत्मा कहेंगे। भले ही उसका स्वरूप समझने में विज्ञान जगत को कुछ समय लगे।
शाश्वत सुख हमारे जीवन का लक्ष्य है और आत्मा उसका केंद्र। इंद्रियाँ उसके विषय मात्र हैं, इन विषयों को लक्ष्य न बनाकर आत्मा को जानने का प्रयत्न करना चाहिए, यही बात उपनिषदकार ने कही है।

(( लोकोत्तर जीवन की विज्ञान द्वारा स्वीकृति ))
आत्मा की चैतन्य-सत्ता के प्रतिपादन के साथ ही यह स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि मृत्यु के उपरांत आत्मा की गति क्या, कैसी और कहाँ होती है? यही बात कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में इस प्रकार कही है।
महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को महर्षि चित्र का यज्ञ संपन्न कराने को भेजा। चित्र स्वयं महान विद्वान थे, उन्होंने श्वेतकेतु से जीवात्मा की गति संबंधी कुछ प्रश्न किये, किंतु श्वेतकेतु से उन प्रश्नों का उत्तर न बन पड़ा। उन्होंने कहा – “हमारे पिताजी अध्यात्म विद्या के पंडित हैं, उनसे पूछकर उत्तर दूँगा।”
श्वेतकेतु पिता उद्दालक के पास आये। सारी बात कह सुनाई। महर्षि चित्र ने जो प्रश्न किये थे, वे भी सुनाये किंतु उद्दालक स्वयं भी उन बातों को नहीं जानते थे, इसलिये उन्होंने श्वेतकेतु से कहा— “तात्, तुम स्वयं चित्र के पास जाकर इन प्रश्नों का समाधान करो। प्रतिष्ठा का अभिमान नहीं करना चाहिए। विद्या या ज्ञान छोटे बालक से भी सीखना चाहिए। ”
श्वेतकेतु को अपने पिता की बात बहुत अच्छी लगी। वे चित्र के पास निरहंकार भाव से गये और विनीत भाव से पूछा— “महर्षि हमारे पिताजी भी उन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकते। उन्होंने आपसे ही वह विद्या जानने को भेजा है।” तब चित्र ने विनीत श्रद्धा से प्रसन्न होकर जीवात्मा की परलोक गति का विस्तृत अध्ययन कराया। कोषीतकिं ब्राह्मणोपनिषद् में महर्षि चित्र ने जीव की गति और लोकोत्तर जीवन की व्याख्या करते हु लिखा है–
“तनेत देवयजनं पन्थानमासाद्याग्नि लोक भागच्छति । स वायुलोकं स वरुणलोकं स आदित्यलोकं स इन्द्रलोकं स प्रजापति लोकं स ब्रह्मलोकं तं ब्रह्मा हाभिधावत् मम यशमा विरजा पालयन्नदीप्राप न वाऽयजिगीय तीति ।” —कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् ३.

अर्थात- “जो परमेश्वर की उपासना करता है, वह देवयान मार्ग द्वारा प्रथम अग्निलोक को प्राप्त होता है। फिर वायु-लोक में पहुँचता है, वहाँ से सूर्यलोक में गमन करता, फिर वरुण-लोक में जाकर इंद्र-लोक में पहुँचता है। इंद्र लोक से प्रजापति-लोक, प्रजापति-लोक से ब्रह्म-लोक को प्राप्त होता है। इस ब्रह्मलोक में प्रविष्ट होने वाले मार्ग पर ‘आर’ नामक एक वृहद् जलाशय है। उससे पार होने पर काम-क्रोध आदि की उत्पत्ति द्वारा ब्रह्म-लोक प्राप्ति की साधना और यज्ञादि पुण्य कर्मों को नष्ट करने वाले ‘येष्टि’ नामक मुहूर्ताभिमानी देवता निवास करते हैं, उनसे छुटकारा मिलने पर विरजा नाम की नदी मिलती है, जिसके दर्शन मात्र से वृद्धावस्था नष्ट हो जाती है। इससे आगे इला नाम की पृथिवी का स्वरूप इह्य नामक वृक्ष है, उससे आगे एक नगर है, जिसमें अनेकों देवता निवास करते हैं। उसमें बाग-बगीचे, नदी-सरोवर, बावड़ी, कुएँ आदि सब कुछ हैं।
इन आख्यानों को आज का प्रबुद्ध समाज मानने को तैयार नहीं होता। उन्हें काल्पनिक होने की बात कही जाती है। संभव है उपरोक्त कथन में जो नाम प्रयुक्त हुए हों, वे काल्पनिक हों, पर आज का विज्ञान यह तो स्पष्ट मानने को तैयार हो गया कि पृथ्वी के अन्यत्र लोक भी हैं, वहाँ भी नदियाँ, पर्वत, खार-खड्डे, प्रकाश, जल, वायु, ऊष्मा आदि हैं। चंद्रमा के एक पर्वत का नाम शैलशिपर रखा गया है। इस तरह के अनेक काल्पनिक नाम रखे गये हैं। मंगल ग्रह के चित्र में कुछ उभरती हुई रेखायें दिखाई दी हैं, जिनके नहर या सड़क होने का अनुमान लगाया जाता है। यदि इस तरह का विज्ञान अन्य लोकों में संभव है, तो वहाँ भी सभ्य और सांस्कृतिक जीवन हो सकता है। इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं रह जाती।
अब तक जो वैज्ञानिक खोजें हुई हैं, उनमें बताया गया है कि हमारी आकाश गंगा में लगभग १००००००००००० नक्षत्र ग्रह परिवारों से युक्त नक्षत्रों की संख्या १०००००००००० है जीवों के निवास योग्य ५००००००००० नक्षत्र हैं, जिनमें जीव हैं उन ग्रहों की संख्या २५०००००००० बताई जाती है। ऐसे ग्रह जिनके प्राणी काफी समुन्नत हो चुके हैं, उनकी संख्या ५०००००००० है। जिन ग्रहों के जीव संकेत भेजना चाहते हैं और जिनके संकेत भेज रहे हैं, उनकी संख्या क्रमशः १०,००००००० और १०,००००० है । यह आँकड़े ब्रिटेन के प्रसिद्ध अंतरिक्ष शास्त्री ‘डेस्मॉड विंग हेली’ द्वारा विस्तृत अध्ययन खोज और अनुमान के आधार पर प्रस्तुत किये गये हैं।
कुछ ग्रह ऐसे हैं, जहाँ जल व ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम है कि वहाँ जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। चंद्रमा का धरातल दिन में इतना गर्म रहता है कि धातुएँ पिघल जायें, इसलिये किसी मानव जैसे देहधारी का वहीं होना नितांत असम्भव है। इसी तरह रात में चंद्रमा तक तापमान शून्य से भी बहुत नीचे गिर जाता है, इसलिये भी प्राणियों का अस्तित्व संभव नहीं दिखाई देता। चंद्रमा का एक दिन पृथ्वी के सात दिन के बराबर होता है, इतने लंबे समय तक सूर्य की ‘अल्ट्रावायलेट किरणों को सहन करना मानव शरीर के वश की बात नहीं। शुक्र ग्रह की स्थिति भी ऐसी ही है कि वहाँ जीवन की संभावना नहीं हो सकती।
किंतु कुछ ऐसे कारण और परिस्थितियाँ भी हैं, जिनसे सौर मंडल के कुछ ग्रहों में जीवन होने का स्पष्ट प्रमाण मिल जाता है। यह हम सब जानते हैं कि पदार्थ समान परिस्थिति के अणुओं से मिलकर बनता है। अणु ही शरीर रचना के आधार होते हैं। वैज्ञानिकों को इन बातों के प्रमाण मिले हैं कि जिस तरह के अणु पृथ्वी में पाये जाते हैं, उस तरह के अणु लाखों मील दूर के ग्रहों में भी विद्यमान हैं। वह शरीर रचना की स्थिति में होते हैं। अलबत्ता चेतनता उन ग्रहों में पहुँचकर उन अणुओं से बने शरीर के कारण ज्ञान, आत्म-सुख, संतोष, शांति आदि की परिस्थितियाँ पृथक् अनुभव कर सकती है। उनके बोलने और समझने के माध्यम अलग हो सकते हैं। शरीर की आकृति भी भिन्न हो सकती है, चूँकि प्राकृतिक नियम और रासायनिक तत्त्व ब्रह्मांड के सभी ग्रहों पर अपरिवर्तित रहते हैं, इसलिये वैज्ञानिकों को यह भी आशा है कि रासायनिक तत्त्वों के मिश्रण से जैसी चेतनता तथा प्रतिक्रिया पृथ्वी पर अनुभव होती है, वैसी कल्पना से परे दूरियों पर बसे अगणित ग्रहों पर भी अवश्य होती होगी।
इटली के ब्रूनो कहते थे— “असंख्य ग्रहों पर जीवन का अस्तित्व है। विश्व में जीवन की अभिव्यक्ति असंख्य और अलग-अलग रूपों में हैं। किसी ग्रह के निवासियों के हाथ पाँच-सात होते होंगे, किसी के पाँव नहीं होते होंगे। कहीं दाँतों की आवश्यकता न होती होगी, कहीं पेट की आकृतियाँ कहीं-कहीं कल्पनातीत भी हो सकती हैं। पृथ्वी अनंत विश्व में एक छोटे से कण के बराबर हैं। यह सोचना हास्यास्पद है कि केवल पृथ्वी पर ही बुद्धि वाले जीव रहते हैं।”
बाद में इंग्लैंड के न्यूटन, जर्मनी के कैप्लेर और लैब्नीत्सा, गैलीलियो, रूस के लोमोनासोव, फ्रान्स के देकार्त और पास्कल आदि ने भी स्वीकार किया कि ब्रह्मांड के ग्रहों में जीवन है। वे वेदों के इस विश्वास को भी मानने को तैयार थे कि पृथ्वी से दूर आकाशीय पिंडों में जीव की कर्मगति के अनुसार पुनर्जन्म होता है। यह जन्म कुछ समय के बाद भी हो सकते हैं और लंबे समय के भी। मनुष्य अपने सारे जीवन के बाद मृत्यु के क्षणों तक जैसी मानसिक स्थिति विकसित कर लेता है, उसका प्राण-शरीर और कारण- शरीर भी उसी के अनुरूप परिवर्तित हो जाता है। फिर जहाँ उस शरीर के अनुरूप परिस्थितियाँ होती हैं, वह उसी आकाश पिंड की ओर खिंच जाता है और वहाँ सुख-दुःख की वैसी ही अनुभूति करता है, जिस तरह कि इस भौतिक जगत में।
संपूर्ण विश्व ब्रह्मांड मनुष्य शरीर की तरह ही एक स्वतंत्र पिंड जैसा है, उसमें जीवों की गति उसी प्रकार संभव है, जिस तरह शरीर में अन्न कणों की गति होती है।
अब इस मान्यता का खंडन करना संभव हो गया है कि अन्य ग्रहों की तापमान की स्थिति में प्राणी का रहना संभव नहीं यह ठीक है कि शरीर का जो स्वरूप ( हाथ-पाँव, नाक-मुँह, पेट आदि) पृथ्वी पर है, वह अन्यत्र न हों। वातावरण के तापमान और दबाव की स्थिति में भी जीव-प्राणी अपने आपको वातावरण के अनुकूल बना लेते हैं। इस दृष्टि से बृहस्पति, शनि, यूरेनस (उरण), नेप्च्यून (वरुण), प्लूटो (यम) आदि ग्रहों को देखें, तो जान पड़ता है कि वहाँ जीवन नहीं है, वहाँ मीथेन गैस की अधिकता है। बृहस्पति ग्रह पर घने बादल छाये रहते हैं।
बादलों का विश्लेषण करने पर वैज्ञानिकों ने पाया, उनमें हाइड्रोजन का सम्मिश्रण रहता है। अमोनिया और मीथेन गैसें भी अधिकता से पाई जाती हैं। बादलों में सोडियम धातु के कण भी पाये जाते हैं, इससे वृहस्पति के बादल चमकते हैं। इन परिस्थितियों में यद्यपि जीवाणुओं की शक्ति नष्ट हो जाती है, पर जिस तरह पृथ्वी पर ही विभिन्न तापमान और जल-ऊष्मा की विभिन्न स्थितियों में मछली, साँप, मगर, कीड़े-मकोड़े, वनस्पति, फल-पौधे, स्तनधारी गोलकृमि और टारड़ीग्राडों जैसे जीव पाये जाते हैं, तो अन्य ग्रहों पर इस तरह की स्थिति संभाव्य है और इस तरह सूर्य, चंद्रमा आदि पर भी जीवन संभव हो सकता है, भले ही शरीर की आकृति और आकार कुछ और ही क्यों न हो।
इस तथ्य की पुष्टि में अमरीकी वैज्ञानिक मिलर का प्रयोग प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। मिलर ने एक विशेष प्रकार के उपकरण में अमोनिया, मीथेन, पानी और हाइड्रोजन भरकर उसमें विद्युत धारा गुजारी। फिर उस पात्र को सुरक्षित रख दिया गया। लगभग १० दिन बाद उन्होंने पाया कि कई विचित्र जीव- अणु उसमें उपज पड़े हैं। इससे यह सिद्ध होता है, वातावरण की विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्राणियों का जीवन होना संभव है। यह भी संभव है कि उनमें से कुछ इतने शक्तिशाली हों कि दूर ग्रहों पर बैठे हुए अन्य ग्रहों जिनमें पृथ्वी भी सम्मिलित है— के लोगों पर शासन कर सकते हैं। उन्हें दंड दे सकते हों अथवा उन्हें अच्छी और उच्च स्थिति प्रदान कर सकते हैं; लोकोत्तर निवासी पृथ्वी के लोगों को अदृश्य प्रेरणायें और सहायतायें भी दे सकते हैं।
इस दृष्टि से यदि हम अपने आर्ष ग्रंथों में दिये गये संदर्भों और अनुसंधानों को कसौटी पर उतारें, तो यह मानना पड़ेगा कि वे सत्य हैं, आधारभूत हैं। अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार जीवात्मा को अन्य लोकों में जाना पड़ता होगा और वहाँ वह अनुभूतियाँ होती होंगी, जो कोषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में दी गई हैं।
इन वैज्ञानिक तथ्यों को देखते हुए यदि कोई कहे कि मनुष्य को शुभ और सत्कर्म करना चाहिए, ताकि वह ऊर्ध्व लोकों का आनंद ले सके तो उसे हास्य या उपेक्षा की दृष्टि से नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से तथ्यपूर्ण अनुभव करना चाहिए। शास्त्रकार का यह वचन सबके लिए शिरोधार्य होना चाहिए–

सोपानभूतं स्वर्गस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम् ।
तथात्मानं समाधत्स्व भ्रश्यसेन पुनर्यथा ।।

‘यह मनुष्य शरीर पाना बड़ा दुर्लभ है। बड़े पुण्यों से यह प्राप्त किया जाता है। यह स्वर्ग की प्राप्ति का साधन है, इसलिये इस मनुष्य शरीर को प्राप्ति करके इसे शुभ कर्मों में लगाना चाहिए, जिससे अवनंति को प्राप्त न हो। पथ भ्रष्ट न हो।’
जीवात्मा की अमरता को स्वीकार कर हमें भी ऊर्ध्व लोको (स्वर्ग) और ब्रह्मानंद की प्राप्ति के प्रयत्न करने चाहिए। सत्कर्मों द्वारा आत्मा को विकसित करना उसका सर्वोत्तम और सरल उपाय है। विकास को इसी जीवन तक सीमित समझकर तथा उसके उपरांत विकास के अधूरे प्रयत्न व्यर्थ ही रह जाने की आशंका कर अर्जुन की तरह अंतद्वंद्व में पड़ने की आवश्यकता नहीं । मृत्यु जीवन का अंत नहीं और सत्प्रयास कभी भी निष्फल नहीं रहते। अतः मरणोत्तर जीवन एवं पुनर्जन्म की वास्तविकता को समझकर निरंतर विकास की चेतना को ऊर्ध्वमुखी बनाने का प्रयास करना ही उचित एवं आवश्यक है। मनुष्य जन्म की सार्थकता इसी में है। जीवन को शरीर तक सीमित समझकर पशु-प्रयोजनों में ही उलझे रहना तो आत्म-सत्ता का अपमान है, उसकी महानता की अवज्ञा है। इस पाप से बचने और चेतना की अनंतता को स्मरण करते हुए शरीर को नहीं, उसी अविनाशी सत्ता को सुख देने का ध्यान रखना चाहिए।

Language: Hindi
Tag: लेख
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