पुत्र को सीख
घनाक्षरी छंद
पंच सरपंच मिलने से मंच नहीं मिला, कुंठित भड़ास कहीं भी निकालता है क्यों।
सर्वहित लिख, कुछ अलग सा दिख, बेटा,
अनुभव बिन ज्यादा भ्रम पालता है क्यों ।
मारण किसी पै करें खुद मरता है वही,
उसी पथ पर ,अपने को डालता है क्यों।
बैठे ठाले का विवाद तर्क ,बकवास कर ,
अपने को लुच्चों के सांचे में ढालता है क्यों।
शब्द अर्थ की सीमाएं निर्णय बताएं सदा, बड़ा-बड़ा रहता है छोटा-छोटा रहता ।
धन बुद्धि बल सब के समान नहीं होते ,
भाग्य अनुसार भिन्न कोटा कोटा रहता।,
आत्म प्रचार का बजाओ ढोल कितना भी,
खरा खरा रहता है खोटा खोटा रहता।
सागर को छोड़ अभी घड़ा बनके बता दे ,
घड़ा घड़ा रहता है लोटा लोटा रहता।
मंच वाला छल नहीं ,व्यक्तिवादी बल नहीं,
सत्ताधारी दल नहीं, भाव भरा भौन हूं।
मुझको बुलाओनहीं खोपड़ीको खाओ नहीं,
जोर आजमाओ नहीं ,चंचल सी पौन हूं ।
जैसे चाहो पेट पालो, कविता कूड़े में डालो ,
किसी की भी हो सुना लो ,सोचो मत कौन हूं ।
मजमा मदारियों का मैंने ना बिगाड़ा कभी ,
डरो ना दिखाओ मैं तो शुरु से ही मौन हूं।
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश)