पुत्रियाँ
पुत्र की चाहत,हो उसी की बादशाहत
हमारे समाज की यही मनोवृत्ति है,
पुत्री के जन्म पर होना झल्लाहट,
नारी के प्रगति में बनी हुयी भित्ति है।
हमने सारे सपने पुत्र के लिए गढ़े,
संसाधन सारे उन्हीं के लिए किए खड़े,
पुत्री की अभिलाषाएँ अंध कूप में पड़े,
ऐसे में नारी कैसे आगे बढ़े।
पुत्र से कहा-“पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब,
खेलोगे और कूदोगे तो होगे ख़राब।”
पर क्या की पुत्री के अध्ययन की भी चिंता ,
क्या उसे कभी दी निर्णय कि स्वतंत्रता।
है विद्या की देवी नारी औ शक्तिस्वरूपा,
पर विद्या से वंचित नारी औ भारस्वरूपा,
पुरुष के हितों में वो ख़ुद को खपातीं,
अपनी सारी पीड़ाएँ मौन पी जातीं।
पर अब पुत्रियाँ करती उद्घोष हैं,
हममें भी पुत्रों के जितना ही जोश है,
दिखाया रीओ में सिंधु और साक्षी,
भारत का मान हमने ही राखी।
खिलाड़ी एक-एक कर होते शिकस्त थे,
पदक के सपने तब होते ही ध्वस्त थे,
सिंधु-साक्षी पदक पाने में व्यस्त थे,
विजय वरण को होते अभ्यस्त थे।
अपदक पीड़ा से था भारत रुआँसा,
सिंधु दिया रजत साक्षी ने काँसा,
जन-जन के उर में स्थान बनाया,
भारत की बेटी का मान बढ़ाया।
मत समझो पुत्री को बला की पैदाईश,
पूरी करेंगी ये सारी ही ख़्वाहिश,
जब-जब ही पुत्र हो जाएँगे नाकाम,
पुत्रियाँ ही बचाएँगीं आपका सम्मान।