“पीली सी धूप”
पीली सी धूप
पहनकर जो इठलाई थी
मन के आँगन में
वो तुम ही थी न?
मेरे कानों में गूँजते
तुम्हारी झाँझर के स्वरों
ने देखो कितने ही गीत
गड डालें हैं प्रीत के…
मेरी धड़कनों की ताल पर
जो ,मचले थिरके और
मौहब्बत का फूल बन कर
बिखर गए..
.मेरे बेजार से जीवन में …
हर सूँ फैल गई खुशबू मधुर प्रेम की…
भूल गया मैं सुधबुध अपनी…
तुम्हारा समर्पण. .
मुझे मूक कर गया
बस दरम्याँ रह गई
आँखों से तरलती वो,
अबूझ सी बातें
शर्म से लरजते सुर्ख लब…
प्रेम की वो तमाम हदें
लाँघ गए और हम
कभी न टूटने वाले एक
पावन पवित्र ऐसे पाश में बँध गए
जिसमें लाड़ था दुलार था
मान था सम्मान था ।
निधि मुकेश भार्गव