पीर
स्व की पीर
अकुलाती है,
शीराज़ा जगाती है,
गाहे-बगाहे,
काशीवास का
आकूत करवाती है,
शर-शय्या निश्चेष्ट
भीष्म सी।
पर पीर
गाफ़िल बनाती है,
स्वकीय से परे
ले जाती है,
चढ़ाती है,
कंगूरे की लता-सी।
कितना व्यतिरेक है
स्व की पीर
और
पर पीर में
बित्ते भर
उद्भावना का
या
वैमनस्य का।