पीपल बाबा बूड़ा बरगद
पीपल बाबा, बूड़ा बरगद शाखाएं अपनी फैलाता था
नीम हकीम की पुड़िया होती, भूत बबूल पे आता था
टेशू महकते फागन में, जेठ फालशे खाते थे
इठलाती इमली खट्टी, मीठा चूर्ण संग मिलाते थे
आम की हर टहनी पर हक़ अपना हम रखते थे
लटक के झूला भीगे सावन में मल्हारें गाता था
ऊँचे दरख्त अमलताश के, सहजन के संग इठलाते
अपनी जवानी को दिखलाकर, मौल श्री को भरमाते
वहीँ कहीं पर कचनार खड़ा हो अपनी मौजें था करता
बेल कटहल के बीच में गूलर अपने फल को गिराता था
साँझ की छैया चौबारे की, शहतूत में डूबी होती थी
बेल अंगूरों की लहराती, दशहरी की मस्ती होती थी
कीकर करौंदा और लभेड़े संग, नींबू अमरुद टपकते
पक्का बाग़ की बनी तलैया, छप छप बचपन करता था
हे मनुज तुझे क्या हो गया, क्यों तू इतना बौराया है
काट जड़ो को इतना बता दे, किसने फिर सुख पाया है
ये वृक्ष औषधि वनस्पति,मेवा, गोंद का भी सुख देते
इनकी शीतल छाया ही, अवसाद का त्रस्त मिटाता था
हो आभारी परम शक्ति के, फिर से इनका ध्यान धरो
वर्ष में एक ही कम से कम, अपने लक्ष्य का भान करो
यही वृक्ष की महिमा, योग से आत्म वोध करवाते
इतिहास साक्षी इसके सच का, ये संगीत बनाता था
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