पीड़ाओं के संदर्भ
पीड़ाओं के संदर्भों में, रिश्तों का खेल अनोखा है।
है व्यथित हृदय,क्या मौन रहूंँ?या कह दूंँ सब कुछ धोखा है।
धोखा है दिनकर का दिन भी,धोखा है चांँदनी रातें भी।
धोखा है बाग महकता गुल,धोखा है ये बरसातें भी।
धोखा है नदियों का प्रवाह ,धोखा है निर्झर का पानी।
धोखा है पंछी का उड़ना, धोखा है धरा चुनर धानी।
धोखा है नदियों का प्रवाह ,धोखा है निर्झर का पानी।
धोखा है पंछी का उड़ना, धोखा है धरा चुनर धानी।
किन आयामों को सत्य करूंँ?किन विमाओं से युद्ध करूंँ
कैसे मन की पीड़ाओं को सीमाओं के आबद्ध करूंँ?
पुलकित सौहार्द की भाषाएंँ,अब विवश हुई लाचार हुई।
पीड़ाओं से यह जीवन है, पीड़ाएंँ निर्मल हार हुई।
लो आज पहनता हूंँ पीड़ा,करुणा के झंझावातों में।
सीखो कैसे खुश रहता हूंँ,धस रही धरा हालातों में।
संघर्ष यहांँ कुछ दैहिक है, कुछ है द्वंद रूप में क्षय।
कर प्रथम विजय मन भावों पर,फिर तय करना जग पर जय जय।
सच निराधार लगता है क्या? मेरा दर्शन मेरा चिंतन
या नहीं समझ पाए अब तक ,स्नेहिल भावों की रम्य रूदन।
दो पल का सुख दुःख साथी है,अनुयाई बन स्मृति का।
तू सुख दुःख भोग हृदय हर्षित,है यही पंथ नव कृति का।
क्या पता विधाता क्या चाहे? कोमल कोमल उन काया से
जिसने न दुनियांँ देखी हो,जो नहीं है अवगत माया से।
तुम उन हाथों में कागज़ दो,दे दो थोड़ी सी स्याही भी।
फिर देख तमाशा नीरस का,बहते रस पीयूष सुराही की।
है द्रवित मेरा मन पीड़ा से,पर सूर्य को नेत्र समझता हूंँ।
मैं हूं दुनियां का कैनवास,धरती को चित्र समझता हूंँ।
चल लिखें काव्य की कुछ पंक्ति,इस वृहद व्योम की पुतली पर।
चल लिखें तपिश है वैशाखी,चल लिखें मेघ की बदली पर।
कस कमर हुए तैयार पुष्प,खिलने को तरुण कथानक से।
है निर्धारित सब पहले से,कुछ भी न हुआ अचानक से।
आखिर में आशा जागी है,है पहर तीसरा राति का।
हो गया समय अब आने का, हां धवल वृंद बाराती का।
दीपक झा रुद्रा