पिशाचनी
सुबह सुबह मँजुला अपनी बेटी को लेकर काम पर आई,
इतनी सुबह उसे देख कर कोफ़्त तो हुई मुझे,
पर बच्ची को देख कर थोड़ी हिचकिचाई,
जल्दी जाना है वापिस दीदी इसलिए जल्दी हूँ आई,
इस पिशाचनी को छोड़ कर जो आना है गाँव,
पिशाचनी शब्द पिघले शीशे सा उतरता गया कान में,
मेरी तीखी नज़रें देख मँजुला घबराई,
मँजुला अक्सर उसे पिशाचनी बुलाती,
शायद सौतेली जो थी वो ,
यह डायन माँ को खा गई,
इसे आते हैं अजीब से दौरे,
कोई डाकिन है इस पर छाई,
उसकी दलीलें और थी ग़ुस्सा दिलातीं,
पर पता था मुझे ,
जब बच्ची ने होश संभाला होगा,
शराबी बाप को माँ को नोचता पाया होगा,
कोमल मन पर भारी बोझ,
फिर माँ का जाना मँजुला का आना,
अन्तरमन पर कई चोटें एक साथ,
छोटे से सीने पर कई आघात,
सह न सका मस्तिष्क इतना ताव,
बस शायद तभी से अचानक,
एक बार उसमें उभरी पिशाचनी,
फिर उभरने लगी बार बार,
लगी पिशाचनी हर बात मनाने,
उसे अपना ग़ुलाम बनाने,
अब जब भी मँजुला उस पर हाथ उठाती,
बाप करता पी कर हंगामा,
पिशाचनी दौड़ी चली आती,
पिशाचनी सीखा रही थी उसको लड़ना,
डराना,
उसका पिशाचनी होना सबको डराता,
पर कहीं दूर बैठे मुझे महक महसूस होती उस डाकिन की,
जब आती मेरे घर, मुझसे नज़रे मिलाती,
एक अजीब सी चमक हम दोनों की
आँखों में है उभर आती,
शायद एक पिशाचनी दूसरी को है पहचानती,
लड़ने का ढंग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकता है,
पर हर औरत में है इक पिशाचनी,
जो केवल उभरती है उस वक़्त
जब वह चीख़ना-चिल्लाना है चाहती,
ज्वालामुखी की तरह फटना है चाहती……