पिया घर बरखा
कल शाम से ही मौसम बदला हुआ था। आसमान में बादलों की आवाजाही जारी थी। रह – रह कर बौछार होने लगती, फिर थम जाती। कुल मिलाकर मौसम खुशगवार था। उस पर ऋषिकेश सा दर्शनीय स्थान, शान्त वातावरण, खूबसूरत पर्वतीय प्राकृतिक सौंदर्य से घिरा नगर। गंगा के घाटों की अपनी अलग अनुपम छटा जहाँ बैठकर मन को असीम शान्ति का अनुभव होता।
“बहुत भाग्यवान है तू , वीणा जो ऐसे पवित्र नगर से तेरा नाता जुड़ रहा है।” ऋषिकेश में उसका रिश्ता तय होने पर माँ ने प्रसन्नता से उसे गले लगा लिया था। पिता भी बहुत खुश थे। वीणा बिजनौर (उ०प्र०) के छोटे से मन्दिर के पुजारी की बेटी थी। परिवार में माता – पिता एवं एक छोटा भाई था। ब्राह्मण परिवार था, अतः पिता चाहते थे कि कोई उन जैसे परिवार का ही पुत्र उनकी पुत्री का वर बने। ईश्वर ने मानो उन्हें मुँहमाँगा वरदान दे दिया, जब ऋषिकेश से उसके लिये एक ब्राह्मण कुल से ही रिश्ता आया और जट मँगनी, पट ब्याह वाली कहावत चरित्रार्थ हो गयी। मात्र पन्द्रह ही दिनों में उन्नीस वर्षीय वीणा दुल्हन बन ससुराल आ गयी।
परिवार यहाँ भी बड़ा न था। ससुर थे नहीं, सास का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं रहता था। पति समेत एक देवर और एक नन्द। और इनके बीच अब स्वयं वह यानि वीणा। जैसा छोटा सा घर वहाँ बिजनौर में, वैसा ही छोटा सा घर यहाँ ऋषिकेश में। पति की राम – झूला के समीप दुकान थी, जहाँ पूजा – पाठ सहित दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति से जुड़ा सामान बेचा जाता था। पति सुबह तड़के ही चाय पीकर दुकान पर चले जाते, देवर सुबह का नाश्ता करके बड़े भाई का नाश्ता लेकर जाता। फिर दोपहर के भोजन के समय लौटता और भोजन कर भाई के लिये भोजन लेकर दोबारा दुकान पर चला जाता। उसके बाद दोनों भाई रात को ही घर लौटते।
नन्द पढ़ाई के अतिरिक्त का समय माँजी (सासू माँ) की देखभाल और घरेलू काम-काज में वीणा का सहयोग करते हुए बिताती। कुल मिला कर परिवार में सब कुछ व्यवस्थित था।
वीणा अपनी नयी दुनिया में मगन हो गयी थी। दुविधा थी तो बस एक; वह यह कि शादी के समय ऋषिकेश जैसे रमणीक स्थल को लेकर जो कल्पनाएँ वीणा ने अपनी सखी – सहेलियों के बीच बैठकर की थीं, वे इस जिन्दगी में कहीं साकार होती प्रतीत नहीं होती थीं। कितने सपने बुने थे उसने कि शादी के बाद ऋषिकेश में प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते हुए पति के हाथों में हाथ डाले शाम को गंगा किनारे टहलना, फिर चलते-चलते थककर किसी घाट की सीढ़ियों पर बैठ पति के कंधे पर सिर टिका आँखें मूँद शान्त वातावरण का आनंद अनुभव कर अपने भाग्य पर मन ही मन इतराना। ऐसी ही और भी अनेक कल्पनाएँ जो उम्र के इस दौर में किसी भी युवती के ख्यालों का हिस्सा होती हैं।
उस पर भी बारिश का मौसम !
यह वीणा का सर्वाधिक प्रिय मौसम था। वह इस मौसम की मानो दीवानी थी। बचपन से लेकर उम्र के इस पड़ाव तक उसे बरसात का इंतजार सा रहता था। जब कभी आसमान में बादल दिखायी देते, उसका हृदय अनजानी प्रसन्नता से भर उठता। अक्सर घर की छत पर खड़ी वह आसमान में घिरते बादलों को निहारा करती। उनके बनते-बिगड़ते नये-नये आकार को लेकर अनगिनत कल्पनाएँ करती। फिर जैसे ही बूँदें बरसने लगतीं, वह उनका आनन्द लेने को आतुर हो अपने सभी काम भूल जाती। बारिश की बूँदें, रिमझिम फुहार या बारिश की तेज बौछार, हर रूप में वह रोमांच व आनन्द का अनुभव करती।
पहाड़ की बारिश का अपना अलग ही रूप होता है। ऐसा उसने पत्र पत्रिकाओं में न केवल पढ़ा था, अपितु टीवी व फिल्मों में देखा भी था। जब उसके विवाह की बात ऋषिकेश में तय हुई तो उसकी सखी-सहेलियों से इस विषय पर बहुत हँसी-ठिठोली व चर्चा हुई।
कल शाम जैसे ही मौसम में बदलाव हुआ, उसे अपनी सभी कल्पनाएँ सच होती प्रतीत हुई। वैसे तो ऋषिकेश का मौसम अक्सर ही उसे बिजनौर की अपेक्षा अधिक सुहाना लगा। किन्तु कल शाम से जो मौसम बदला वह उसकी कल्पनाओं के अनुरूप था। वह एक अनजानी प्रसन्नता अनुभव कर रही थी। घर के कामकाज के बीच ज्यों ही मौका मिलता, इधर-उधर से झाँक कर बादलों को निहार लेती। आखिर को यह उसका ससुराल था। नयी गृहस्थी की जिम्मेदारी, उस पर सासू माँ का ढीला स्वास्थ्य। मायके जैसी स्वतंत्रता यहाँ न थी। पति भी काम – काज में व्यस्त रहते। ऐसे में मौसम की किसे पड़ी ?
परंतु उसका चचंल मन नहीं माना तो सुबह की दिनचर्या से जुड़े घरेलू कार्य निपटा, वह अपने मनपसंद मौसम का लुत्फ़ लेने छत पर चली आयी। फुहार के बीच छत पर इधर-उधर टहलते हुए वह प्रकृति की मोहक छटा का आनन्द लेने लगी।
अभी उसे छत पर पहुँचे कुछ ही समय बीता होगा कि नीचे से नन्द की आवाज आ गयी। वह उसे नीचे बुला रही थी। नीचे पहुँच कर पता चला कि देहरादून निवासी उसके पति की मौसी सासू माँ से मिलने आयी हैं।
वह विवाह के पश्चात उनसे पहली बार मिल रही थी। कुशलक्षेम पूछकर वह नन्द के साथ उनकी आवभगत में जुट गयी। इस सब के बीच कब दिन से रात हुई कुछ पता ही न चला। न चाहते हुए भी वीणा की खिन्नता व थकान उसके खूबसूरत चेहरे पर झलक आयी, जिसे मौसी की अनुभवी आँखें भाप गयीं। रात भोजन बनाते समय मौसी रसोईघर में उसके साथ आ जुटी। बातों-बातों में उन्होंने वीणा का मन टटोल लिया, जिसे वीणा समझ भी न सकी।
अगली सुबह वीणा के लिये एक सुखद आश्चर्य लिये थी। नहा-धोकर तैयार होकर वह रसोईघर में नाश्ता बनाने पहुँची तो मौसीजी व नन्द को वहाँ पाया। मौसीजी के चरणस्पर्श करते ही उन्होंने सूचना दी कि उनके ऋषिकेश आने की खुशी में समस्त परिवार मिलकर ऋषिकेश भ्रमण पर जा रहे हैं। वैसे तो परिवार के सभी लोग अपनी -अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहते हैं और तुम्हारी सासू माँ भी बीमारी के कारण कहीं जा नहीं पातीं तो आज मेरे बहाने ही सही, सब एक साथ समय बितायेंगे और मनोरंजन भी हो जायेगा इसलिए यह कार्यक्रम बनाया।
“वैसे बाहर मौसम भी बहुत मस्त है भाभी।” नन्द ने वीणा के करीब आकर फुसफुसाते हुए शरारत भरे अंदाज
में कहा। वीणा ने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से मौसीजी की ओर देखकर लजाकर सिर झुका लिया तो मौसीजी ने स्नेहपूर्वक
उसे गले लगा लिया।
रचनाकार :- कंचन खन्ना, मुरादाबाद,
(उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)
दिनांक :- ३१/०७/२०२१.