पिता
उंगली पकड़ कर हाथों की रास्तों पर था चलना सिखलाया,
क्या है सही, क्या है ग़लत ये फर्क समझना था सिखलाया।
कठिन डगर है, कठिन सफर है चलना तुझको है अकेला,
कांटे हटाने खुद हीं होंगे संग चाहे अपनों का कितना हो मेला।
ये भी तो सिखलाते मुझको एक दिन दूर कहीं चला जाऊंगा,
लाख पुकारोगी मुझको पर लौट के मैं फिर ना आ पाऊंगा।
दूर चला जाऊंगा तुझसे बन जाऊंगा मैं एक सितारा,
आसमान में तारों के संग देखा करुंगा ये जग सारा।
जानतीं हूं मैं बाबा मेरे पास नहीं हो अब तुम,
दूर, बहुत दूर, बहुत हीं दूर मुझसे गये हो तुम।
तेरे मेरे बीच की दूरियां नहीं रहीं अब लम्हों की,
सदियों की भी नहीं है ये,अब हो गई है जन्मों की।
मानूंगी नहीं मैं बाबा लड़ जाऊंगी उस खुदा से,
फिर से तेरी गोद मांग लूंगी मैं अपनी दुआ से।
आराध्या राज (बोकारो)