पिता हैं छाँव जैसे
धूप है दुनिया पिता हैं छाँव जैसे।
शह्र की तनहाइयों में गाँव जैसे।
कोई भी कठिनाई कैसे छू सकेगी।
उँगली उनके हाथ में जब तक रहेगी।
वो अभावों में मेरी उपलब्धि हरदम।
साथ उनके ही नियति उन्नति लिखेगी।
राह में जीवन की मेरे पाँव जैसे।
धूप है दुनिया पिता हैं छाँव जैसे।
मुझसे मेरे भाग्य के दो पाद आगे।
चित्त की जागृति में वो हर वक्त जागे।
एक सूची जो कि संघर्षी रही है।
रिश्तों के नाजुक सम्हाले हैं वो धागे।
स्वप्न के साकार की वो ठाँव जैसे।
धूप है दुनिया पिता हैं छाँव जैसे।
उन निगाहों ने गुजारे दौर सारे।
बीज से फलदार तरु के तौर सारे।
वो हृदय जो नेह में लिपटा हुआ है।
सामने उसके नीरस मन और सारे।
वो जो मुझमें जी रहा हर दाँव जैसे।
धूप है दुनिया पिता हैं छाँव जैसे।
अंकित शर्मा ‘इषुप्रिय’