पिता के साथ
यूँ तो हम सब पिता का मान सम्मान करते हैं,
कुछ दिल से और ज्यादा औपचारिकता निभाते हैं।
पर विश्वास कीजिए कि हम हों या आप
अपवादों को छोड़ दें तो
हम उन पर बड़ा अहसान करते हैं।
तमाम विवशताओं जरुरतों के मद्देनजर ही
हम पिता को पिता कहते हैं।
जब तक हमें पता होता है कि
हमारी हर ख्वाहिश, उम्मीद और सपने
सिर्फ हमारे पिता से ही पूरे कर सकते हैं,
तभी तक ही पिता, हमारे सब कुछ लगते हैं
भगवान भी उनके आगे हमें फीके लगते हैं।
यूँ तो पिता की हर बात हमें चुभती है
उनकी सोच, बुद्धिमत्ता खीझ पैदा करती है,
उनका अनुभव गँवारु और पुराना लगता है
कम आय में भी जीवन जीने की कला
जानने वाला हमारा पिता
हमें बड़ा कंजूस और बेवकूफ लगता है।
उनकी नसीहतें हमें काटने दौड़ती हैं
उनकी सोच हमारे सपनों और स्वच्छंदता की राह में
हमें जीवन का सबसे बड़ा रोड़ा लगती हैं।
पर हम विवश नहीं होते हैं
क्योंकि हम बड़े समझदार होते हैं।
तभी तो आज ही पिता के लिए उनके बारे
बहुत कुछ सोच लेते हैं,
उनके त्याग, श्रम को नजरंदाज करने का
ताना बाना बड़े सलीके से तैयार कर लेते हैं।
उनके जीवन के उत्तरार्ध में
उनकी उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार सब कुछ करते हैं
उनके ही श्रम और कमाई से बने
उनके घर, संपत्ति से दूर ढकेल देते हैं।
अपने स्वार्थ में हम सब कुछ भूल जाते हैं
सभ्यता और कर्तव्य की बात छोड़िए
हम मानवीय मूल्यों का भी खून कर देते हैं
जीते जी उन्हें मौत के मुहाने पर ले जाकर पटक देते हैं
और उनकी मृत्यु पर घड़ियाली आंसू बहाकर
दुनिया को गुमराह करते हैं,
अंतिम संस्कार और कर्मकांड के नाम पर
खूब दिखाया करते हैं,
अपने को लायकदार औलाद होने का
भरपूर प्रदर्शन करते हैं
पर हम यह भूल जाते हैं
कि अपनी औलादों के लिए
हम ही बड़ी नज़ीर पेश करते हैं।
और फिर कल में वही सब अपने साथ
दोहराए जाते हुए देखने को विवश होते हैं,
जो हम बीते कल में बड़ा बुद्धिमान बनकर
अपने प्रिय पिता के साथ जैसा किए होते हैं,
और आज जब खुद पर गुजरती है
तब आँसू बहाते, पश्चाताप करते हुए हाथ मलते हैं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश