पिता की व्यथा
पिता की व्यथा
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जब पड़ी हो मार जग में,अपने ही हित को साधने ,
क्या कोई नचिकेता खड़ा होगा,फिर से यम के सामने।
जब पिता पुत्र की राहें अलग,तन्हा अकेला रूह भी , अन्जान सा दिखता है,यदि बैठा हुआ भी हो सामने।
शब्द खलते हैं हृदय में , सत्य वचन बुजुर्गों के सभी,
जिसे सुनने को लालायित कभी,होते बहुत कुछ मायने।
जब पड़ी हो मार जग में,अपने ही हित को साधने ,
क्या कोई नचिकेता खड़ा होगा,फिर से यम के सामने।
भोर का तारा दिखे नभ, कलरव को जाते खग सभी,
कर्त्तव्यपथ सुत उठ खड़े हो,रह गए हैं आज इने गिने।
साधन हुआ उन्नत धरा पर,साधक नहीं दिखते तभी ,
विज्ञान युग में ज्ञान शिथिल है,पिता सुन रहे बस धड़कने।
जब पड़ी हो मार जग में,अपने ही हित को साधने ,
क्या कोई नचिकेता खड़ा होगा,फिर से यम के सामने।
नेत्र लज्जित स्वर भी कम्पित,से धरा अब झुक रही,
हो रही है अब मिलावट, रिश्तें अनोखे जो,थे थामने।
खोट दिलों में है नहीं पर,संस्कार बदलती क्यूँ जा रही,
भाव पूरित अश्रु बहाने, लो अब मैं आ गया हूँ सामने ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )