पिता… अनजान पहलू
वो जानता है के मौत, एक दिन मुकर्रर है,
फिर भी जीने के पल, कहाँ उसे मयस्सर है।
जोड़ता है आशियां वो, कतरों में टूट कर,
घर में हर इल्ज़ाम लगा, बस उसी पर है।
झड़ते रहे उससे लम्हें, सूखे पत्तों माफ़िक,
कौन साथ है कौन नहीं, वो रहा बेखबर है।
सीधी कभी ना कर पाया, कमर वो राह में,
टेढ़ा-मेढ़ा, ऊँचा-नीचा रहा, उसका सफ़र है।
कोशिशें करता के कोई, पहुंचे वो मंजिल,
जिसे चढ़ने में रह गई, कहीं कोई कसर है।
सुकूं वास्ते करे गुफ्तगु, शरीके हयात से,
हौसला बढ़ाने का वहाँ, छुपा हुआ हुनर है।
चारदीवारी में वो लाए, एक विस्तृत संसार,
इसके इर्दगिर्द ही बनाई, उसने एक ड़गर है।
खुद के लिए ना जीए ना मरे, पिता एक ‘अनिल’
ब्रह्माण्ड में चाहे हजारों, कोई और बसर है।
*आशियां (आशियाना/आशियान) = घर, आश्रय, घोंसला, नीड़
*शरीक-ए-हयात = जीवन संगिनी, पत्नी, भार्या, पति, जिंदगी का रफ़ीक़ या साथी,
©✍?01/03/2022
अनिल कुमार ‘अनिल’
anilk1604@gmail.com