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सुबह और शाम में परिवार के सभी बच्चों को नियमित रूप से दरवाजे पर मास्टर साहब पढ़ाते थे। शाम में छह बजे से रात नौ बजे तक हमारी पढ़ाई लिखाई होती थी। उस समय गाॅंव में बिजली नहीं थी, इसलिए हम लोग सभी बच्चे अपने-अपने साथ में लालटेन लेकर दरवाजे पर पढ़ने आते थे। इससे वहाॅं तीन-चार लालटेन तो हो ही जाता था। लालटेन की रोशनी को कभी कम और कभी अधिक करना हमलोगों का महत्वपूर्ण कार्य था। शीशा काला हो जाने पर उसे खोलकर साफ करते थे, जिसमें कभी कभी हम लोगों का हाथ भी जल जाता था। हम लोगों का यह क्रियाकलाप सामने का कोई व्यक्ति अगर देखता, तो निश्चित सोचता कि हम लोग पढ़ने के प्रति कितने संवेदनशील हैं,पर बात थी ठीक इसकी उल्टी। जहाॅं हम लोग पढ़ते थे वहीं थोड़ी दूर पर ही बाबूजी, चाचा जी और गाॅंव के कुछ लोग रेडियो पर समाचार सुनते और तरह-तरह की चर्चा भी करते रहते थे। वहाॅं दिन भर या पिछले दिन चोरी करने वाले नौकरों को भी कुछ ना कुछ सजा दी जाती थी। हम लोग पूरे मनोयोग से यह सब देखते और सुनते थे,जैसे कि ये सब सिलेबस में हो। बड़ा आनन्द आता था। इसी कारण से दिए गए टास्क को नहीं पूरा कर पाते और उसके बाद मास्टर साहब के द्वारा जमकर धुनाई होती थी। यह सब एक नियमित दिनचर्या हो गया था, इसलिए इसमें हम लोग अपना अपमान नहीं समझते थे।