पाषाण प्रारब्ध
राम क्या तुम वापस आओगे,
देख रही हूँ तुम्हारा रास्ता ,
पाषाण बन कर अब भी,
जड़ हो चुकी हूँ फिर से,
क्या चैतन्य कर पाओगे,
झुलस गया है मेरा चेहरा,
तेजाब के दंड से,
जो मझे मिला मेरे विरोध के कारण,
क्या मेरा धवल रूप,
वापस लौटा पाओगे,
पहचान लिया था मैंने,
इस बार पाखंडी को,
पर श्राप से मेरा हिस्सा हटाकर,
क्या इस बार श्राप ,
बलशाली को दे पाओगे,
मैं निर्दोष तब भी थी ,
मैं निर्दोष अब भी हूँ,
क्या मेरा पाषाण प्रारब्ध,
अब बदल पाओगे।
वर्षा श्रीवास्तव”अनीद्या”