पावस की बूंदें **************
पावस की बूंदें
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घटा जब छाये घनघोर,
टर्र-टर्र और क्रेऊं क्रेऊँ,
करते मेढक और मोर।
ये रिमझिम- रिमझिम ,
ज्योहिं होती ऐसी वर्षा,
भींगने को हर प्राणी का,
सदा ही निज मन तरसा।
बारिश की बूंदों से जब,
प्यास बुझाती तप्तधरा,
बंजर भूमि भी हो जाती,
हमेशा ही तब हरा-भरा।
कृषक भी छोड़ घर बार,
हो जाता खेतों में खड़ा।
मन प्रफुल्लित हो जाता ,
जैसे ही दो चार बूंद पड़ा।
टप-टप, टप-टप होती,
जब जोरों की वर्षा,
धर-धर, धर-धर गिरते,
जब धरा पे ओले।
आवाज आती जब,
छत और छप्पर से तो,
अमीरी और गरीबी का,
जैसे हर राज खोले।
तेज बूंदे जब गिरती,
तन पर, लगता जैसे;
घुप गया खंजर।
ग्रीष्म के इस वर्षे से,
भीग गया भूमि सबका,
सारा का सारा बंजर।
आम्रवन में मचा है ,
जैसे तबाही का मंजर।
बरसेगी ऐसी वर्षा,
जब तक न आ जाए
अक्टूबर और नवंबर।
जब मंडराते बादल,
और चमके बिजली,
झूम उठते गोलू-मोलू,
बंटी और बबली।
जब होती बारिश,
कभी मूसलाधार,
डूब जाते नदी ,नाले,
हाट और बाजार।
इसी पावस में ही,
सावन भी होता,
और भादो भी होता,
आंगन में, मैदानों में;
और खेत-खलिहानों में,
सदा कादो भी होता।
बारिश की तबाही में,
कोई घर पक्के में,
चैन से सोता तो कोई,
डगरों पे बैठा रोता।
‘पावस’ के बूंद की,
सदा यही सच्चाई है,
इसमें अमीरों की,
हरदम ही भलाई है।
और गरीबों की तो,
हर-पल ही तबाही है,
किंतु सबके मन को,
“पावस बूंद” ही लुभाई है।
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स्वरचित सह मौलिक;
..✍️पंकज कर्ण
….कटिहार
संपर्क= 8936069909