पाया जिनसे जरा भी प्यार…
पाया जिनसे जरा भी प्यार
उन सबका दिल से आभार
रुँध – रुँध जाते बाहर आते
मन के मेरे कोमल उद्गार
माया का मोहक जाल बिछा
भरमा न यूँ मुझको संसार
सुख के हसीं लम्हों का भी
अब न उठाया जाता भार
लाख जतन करके हम हारे
किसी विध आता नहीं करार
टूटी कमर बूझे नहीं कोई
पड़ी वक्त की तगड़ी मार
कैसा विचित्र ये रोग लगा
निदान मिले न मिले निस्तार
मन हल्का हो कहकर मन की
किसपे इतना जोर-अधिकार
ज्यों-ज्यों चाह सिकुड़ती जाए
होता जाए आत्म – विस्तार
जाना अकेले परली पार
ढुलता नहीं तन-मन का भार
असमंजस में “सीमा” भारी
कैसे करे भवसागर पार
-© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
“मृगतृषा” से