पापा
“ मैं उसको छुटकी ही बुलाता था “ कहते कहते सत्येन्द्र बाबू थम सा गए थे ।
सत्येन्द्र बाबू जिन्होंने पंद्रह वर्ष पूर्व अपनी जीवन संगिनी को खो दिया था । तब इनकी सेवानिवृति को दस वर्ष शेष थे । एक पुत्र, जिसने विदेश में अपना घर द्वार बसा लिया था। उससे किसी तरह के सहयोग की आशा नहीं रह गई थी। कभी जी में आता कि दूसरा ब्याह कर पुनः एकाकीपन खत्म कर लिया जाए । फिर कभी लगता कि कहीं वह भी जीवन के इस दुरूह सफर के बीच साथ छोड़ दे तो ? नहीं नहीं इंसान इस दुनिया में अकेले ही आता है और अकेले ही जाता है । इन्हीं सब असमंजस के बीच उन्होंने अनाथालय से एक बच्ची गोद ले लिया था। महज दस ग्यारह वर्ष की रही होगी। स्वाभाविक है उसे उसके माता पिता की कोई जानकारी नहीं थी, न ही कोई उसका नाम था। सत्येन्द्र बाबू ने उसका नामकरण किया था— निर्मला , परंतु प्यार से उसे छुटकी बुलाते थे। सत्येन्द्र बाबू चाहे उसे छुटकी बुलाते या चाहे निर्मला उसके चेहरे के भाव में कोई परिवर्तन नहीं होता था। सत्येन्द्र बाबू उसे लाख समझाते कि वह उन्हें ‘ पापा ‘ कह कर पुकारे किन्तु वह सत्येन्द्र बाबू को ‘ बाबूजी ‘ कहती थी। उसे लगता था वह इस घर में काम करने के लिए लाई गई है और सत्येन्द्र बाबू उसके मालिक। यद्यपि सत्येन्द्र बाबू घर का भी अधिकतर कार्य वे स्वयं कर छुटकी पर बोझ नहीं बनना चाहते थे। वे छुटकी को माँ की ममता और पिता का प्यार देने में कोई कसर नहीं रखते थे परंतु जाने क्यों छुटकी खोई खोई सी रहती । बाबूजी से वह इतना कतराती थी मानों बाबूजी की परछाई भी उसपर न पड़े।
एक दिन घर के कामों से निवृत हो कर वह सोफ़े पर निढाल सो गई थी। सत्येन्द्र बाबू ने एक पतली चादर उस पर जैसे ही डाला वह चौंक कर उठ बैठी और छिटक कर दूर चली गई।
“ क्या हुआ छुटकी .. ?” सत्येन्द्र बाबू ने पूछा था। उनकी अनुभवी आँखों ने छुटकी के चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ लिया था।
“ .. बेटा, मैं तुम्हारे पिता की तरह हूँ, तुम्हारा बाबूजी।“ बाबूजी शब्द पर विशेष जोर दिया था उन्होंने।
“ नहीं तुम सारे मरद एक से होते हो .. । वह चीख पड़ी थी और चीखते चीखते रोने लगी थी।
“ अच्छा बेटा, चुप हो जाओ .. । “ उन्होंने सांत्वना देकर उसे चुप करा दिया था किन्तु सत्येन्द्र बाबू के अनुभवी आँखों ने छुटकी के अतीत में किसी कटु अनुभव का आकलन कर लिया था।
दूसरे दिन वह अनाथालय पहुंचे और पूरी घटना का व्योरा देकर उन्होंने वहाँ की कार्यकत्री से पूछा तो उसने सत्येन्द्र बाबू को अकेले में बताया कि उक्त अनाथालय की संचालिका के पुत्र ने उसे अपने पास बुलाकर उसके यौन शोषण का प्रयास किया था परंतु वह निकल भागने में सफल रही। उसके साथ की लड़कियों ने उसे यह भी समझाया था कि जहां जा रही हो , वहाँ भी सतर्क रहना। अब सत्येन्द्र बाबू को सारा माजरा समझ में आ गया था।
घर आकार उन्होंने भले ही निकटता बढ़ाने का कभी भी प्रयास नहीं किया था वरन वे अक्सर उसे समझाते कि वे कितने बुजुर्ग हैं , उसके पितातुल्य हैं, वह उनकी बेटी की तरह है। प्रत्युत्तर में छुटकी सिर हिला देती पर रवैया ज्यों का त्यों।
सत्येन्द्र बाबू ने उसे एक विद्यालय में प्रवेश दिला दिया था। बचे समय में वे छुटकी को पढ़ाते भी थे। धीरे धीरे वह हाई स्कूल के परीक्षा की तैयारी भी करने लगी थी। घर के कामों से उसे सत्येन्द्र बाबू ने मुक्त कर दिया था। उसके हिस्से का काम उन्होंने काम वाली बाई को सौंप दिया था। उसकी मेहनत रंग लाई और वह अच्छे अंकों से पास हो गई थी।
छुटकी को जाने क्यों अब अनाथालय संचालिका के पुत्र और बाबूजी में भिन्नता प्रतीत होने लगा था। थोड़ी नजदीकियाँ भी बढ़ी किन्तु अब भी वह उन्हें बाबूजी कहती थी। इस कारण थोड़ी सतर्कता भी कम हुई थी परंतु सत्येन्द्र बाबू कभी उसके इतना निकट होने का प्रयास नहीं करते कि उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचे या वह अपने बाबूजी को गलत समझे।
समय का दौर चलता रहा। छुटकी स्नातक हो गई थी। उसे अच्छे बुरे का ज्ञान हो गया था। सत्येन्द्र बाबू भी अपनी सेवा से निवृत हो चुके थे। छुटकी अब भी उन्हें बाबूजी कहती थी। सत्येन्द्र बाबू के मन में हमेशा एक अरमान था कि उन्होंने छुटकी की परवरिश एक पिता की तरह किया तो छुटकी उन्हें ‘पापा’ पुकारे क्योंकि इस दुनिया में उसका उनके अलावा और है ही कौन? निकटता बढ़ने के साथ कभी उन्हें लगता कि शायद अब वह उसे ‘पापा’ पुकारेगी। एकाध बार उन्होंने छुटकी को समझाने का भी प्रयास किया था किन्तु छुटकी के लिए वह ‘बाबूजी’ ही रहे।
संयोग से एक दिन वह गंभीर रूप से बीमार हो गई। अस्पताल में आई सी यू में ऐड्मिट किया गया। तमाम परीक्षण के पश्चात चिकित्सकों ने उन्हें खून की व्यवस्था करने को कहा। सत्येन्द्र बाबू ने स्वयं रक्तदान किया और चिकित्सकों से उसे यथाशीघ्र ठीक करने का निवेदन किया।
जब वह ठीक हो गई तो सत्येन्द्र बाबू को उससे मिलने दिया गया। छुटकी को अब ‘बाबूजी’ में ‘पापा’ प्रतीत होने लगा था। बाबूजी को देखते ही छुटकी के होंठ लरजने लगे थे, दोनों आँखों के कोरों से गंगा जमुना की धारा बह निकली। किन शब्दों में वह बाबूजी का आभार प्रकट करे उसकी समझ में नहीं आ रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह सत्येन्द्र बाबू को ‘बाबूजी’ कहे या ‘पापा’। दोनों शब्दों के अक्षर गड्डमड्ड हो गए थे और उसके मुंह से निकल गया — ‘बापूजी.. ‘
सत्येन्द्र बाबू का भी गला रुँध गया था। आँसू बह जाने को बेताब थे परंतु बड़ी मुश्किल से उन्होंने नियंत्रण किया। नए शब्द ‘बापूजी’ में उन्हें ‘पापा’ की झलक दिख गई थी अतः तुरत उनके दोनों हाथों की उँगलियाँ छुटकी के आंसुओं को पोंछने लग गए थे। छुटकी ने भी कोई विरोध नहीं किया था।
“ ना बेटा , .. रोते नहीं, तुम तो अब ठीक हो गई हो। मेरी बिटिया तो बहादुर है, शाबाश.. अच्छा , अब जरा हंस दो।“ और छुटकी के होंठों पर एक फीकी मुस्कान तैर गई थी।
कालचक्र चलता रहा। सत्येन्द्र बाबू ने छुटकी के लिए एक योग्य वर की तलाश कर लिया था। उसके विवाह की तैयारियां भी होने लगी। उसे खुशी भी हो रही थी क्योंकि उसका घर बस रहा था परंतु दुख भी बहुत हो रहा था कि वह अपने बाबूजी को छोड़ कर दूर चली जाएगी। वह ‘बाबूजी’ जिन्होंने उसकी परवरिश में कोई कोर कसर नहीं रखा। वे ‘बाबूजी’ जिन्होंने उसके जीवन निर्माण के लिए कितना त्याग किया था।
विवाह के एक दिन पूर्व छुटकी सत्येन्द्र बाबू के सीने से लग कर रोने लगी। इस अप्रत्याशित घटना से सत्येन्द्र बाबू अनभिज्ञ थे। उन्होंने ने छुटकी की ठुड्डी पकड़कर उसके चेहरे को उठाया और पूछा था।
“ क्या हो गया बेटा, क्यों रो रही हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए… ।“
“ बाबूजी, मुझे माफ कर दीजिए। आपने इतना कुछ मेरे लिए किया। मैंने हमेशा आपको गलत समझा … । “ रोते रोते वह सत्येन्द्र बाबू के पैरों पर गिर पड़ी थी।
सत्येन्द्र बाबू ने उसके कंधों को पकड़ कर उसे उठाया, उसके आंसुओं को पोंछते हुए कहा – “ माफी की कोई बात नहीं बेटा, तुम्हारी जगह मैं होता तो मैं भी वही करता जो तुमने किया है।… चलो अब शादी की तैयारी करो।
अंततः विदाई की बेला आ गई। लाल सुर्ख जोड़े में लिपटी हुई सजी धजी छुटकी आज बहुत बड़ी लग रही थी। सत्येन्द्र बाबू के सीने से लिपट कर रोने लगी —- “ पापा…. “
सत्येन्द्र बाबू के कलेजे को आज ठंडक मिल गई थी। बरसों के अरमान जो पूरे हुए थे।
भागीरथ प्रसाद