पानी पर ख़्वाब
पानी पर ख़्वाब
समंदर के पानी पर
लिखे रहते हैं ख़्वाब
जिसके कोने में ठहरी
नज़र नहीं आती
नर्म सी नमी
मगर उसका आख़िरी छोर
अटक गया है वजूद में मेरे
जो रेत की तरह बिखरता है
और नमी को तहों में
समा लेता है
लम्हा लम्हा फिर जुड़ता है
कई सालों में
बनाने को तहरीरें
मुस्कुराहटों की
लहरों की तरह लौटते सिमटते
वो कारगर लम्हे
जिनको श्राप है मुख़्तसर उम्र का
मगर तस्कीन भर सकोरे
उंडेल दिए जाते हैं
कि बरकरार रह जाए
इस सफ़र की प्यास
और लिखी जाए मेरे नाम
एक गुलमोहर की वसीयत ।