पातुक
पातुक
नशें में बेसुध आदमी की
बगल में पड़े बोतल पव्वों को
कचरा बिननें वाले ने
उठाकर रखा
अपनी पीठ पीछे
लदे प्लास्टिक के झोले में
तभी सभी बोतल पव्वे
ठहाके लगाकर हँसने लगे
एक पव्वा कहने लगा
देखो… देखो…
ये है नशेड़ी आदमी की औकात
जिसको लांघकर लताड़कर
निकल जाता है हर कोई आगे
मैं तो खाली होकर
गिरता हूँ गंदी नालियों व सड़क पर
खाली होकर भी मेरा
रुपया दो रुपया कुछ मोल तो है
हमारे बिकने से मिटती है भूख
कचरा सेवकों के बच्चों की
जब तक हममें
शराब भरी रहती है
हम रहते है सजकर शोकेस में
लगती है हमारें लिये
कतारें लंबी लंबी
करते है लोग मिन्नतें
हमारी एक एक घूँट के लिए
हलक से उतरती हमारी हर घूँट
उतारतीं है आदमी को आदमियत से
और बनाती है आदमी को पातुक
जो गिरता है समाज व
जीवन के हर पायदान से नीचे
इतना नीचे कि पाताल का तल भी
नजर आता है तल विहीन।
मौलिक व स्वरचित।
शांतिलाल सोनी
श्रीमाधोपुर