पांडवों का गृहस्थी जीवन!उत्सर्ग एवं पराभव।।
अर्जुन ने स्वयंबर तो जीता,
द्रौपदी का वरण भी कर लिया।
लेकिन घर पर आकर,
माता से परिहास कर बैठे,
माता हम अनमोल उपहार लाए हैं,
यह वाक्य कह दिया,
माता ने भी,
बिना विचारे,बिन देखे,
पुत्रों से यह कह दिया,
पांचौ भाई,
आपस में बांट लो,
अब,यह सुनकर,
सब सुन हो गये,
काटो तो खून नहीं,
तब माता ने,
घुम कर, देखा
साथ में एक महिला खड़ी है,
अब माता को अपने कहे पर अफसोस,क्या करें,
फिर, उसने नाराजगी जताई,
मुझे, गलत बात क्यों सुनाई,
अब माता के कहें को,
कैसे टालें, और मानें तो कैसे माने!
इसी उलझन में पड़े हुए थे,
तभी, श्रीकृष्ण भी वहां पहुंच गए थे,
उन्हें भी इस समस्या से अवगत कराया,
तब श्रीहरि ने उन्हें बताया,
द्रौपदी ने महादेव से,
ऐसा ही वरदान मांगा था,
जिसमें उन्होंने पांच पुरुषों के गुणों को,
महादेव से मांगा है,
ऐसे में महादेव से मांगे गए,
वरदान को द्रौपदी स्वीकार करले,
और पांचौ को पति के रूप में सिरोधार करले,
द्रौपदी ने इसे अपनी नियति मान लिया,
और पांचौ भाईयों को,पति स्वीकार कर लिया,
इस प्रकार से इस समस्या से,
निजात था पाया,
इसी मध्य, हस्तिनापुर से निमंत्रण था आया,
अर्जुन के स्वयंबर जीतने की,
सूचना, चारों ओर फैली गई थी,
और ऐसे में धृतराष्ट्र पर,
पांडवों को वापस लाने की मांग बढ़ गई,
पांडवों के जीवित होने पर
सभी खुशियां मनाने लगे थे,
ऐसे में धृतराष्ट्र को,
मानना पड गया था,
और पांडवों को वापस लाने को,
दूत भेजकर बुलाना पड़ गया था,
अब पांडव वापस आ गए थे,
लेकिन हस्तिनापुर में एक संशय बन गया,
युवराज कौन रहेगा, यह झंझट बढ़ रहा था,
दो युवराज हो नहीं सकते हैं,
और दुर्योधन पद से हटने को तैयार नहीं हुए थे,
इस पर सहमति को एक सभा बुलाई गई,
इस समस्या से निपटने को योजना बनाई गई,
कितने ही विचार सामने आए,
लेकिन किसी पर भी सहमति बना नहीं पाए,
तब भीष्म पितामह ने,
एक सुझाव दिया था,
हस्तिनापुर को विभाजित करने को कह दिया था,
कोई अन्य सुझाव जब पसंद नहीं आया था,
तो फिर इसे ही स्वीकार किया था,
हस्तिनापुर को विभाजित कर लिया,
खांडव प्रस्थ को, अलग राज्य का दर्जा दे दिया,
अब कौनसा हिस्सा किसे दिया जाए,
इस पर भी नहीं थी एक राय,
तब धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर से यह कह दिया,
तुम तो समझदार हो, खांडव प्रस्थ को ले लो,
युधिष्ठिर ने ज्येष्ठ पिता का मान रख लिया था,
और खांडव प्रस्थ को स्वीकार किया था,
फिर उन्होंने पुरी मेहनत से,
खांडव प्रस्थ को संवार कर इन्द्र प्रस्थ जैसा बना दिया था,
और श्रीकृष्ण जी के कहें अनुसार ही,
इसका नामकरण किया था,
इन्द्र प्रस्थ अपने राज्य का नाम रखा था,
पांडवों ने अपनी यश कीर्ति को बढ़ाया था,
राजसूर्य यज्ञ कराया था,
राजसूर्य यज्ञ में कौरवों को भी बुलाया गया ,
इन्द्र प्रस्थ के वैभव ने इन्हें चौंकाया ,
इन्द्र प्रस्थ में ही दुर्योधन के साथ एक घटना घटी,
जब वह भ्रमित हो कर जलाशय में गिर पड़े थे,
और इसको द्रौपदी ने देखा था,
और परिहास वस अंधे का पुत्र कह कर ,
दुर्योधन का उपहास किया था,
इस उपहास के लिए दुर्योधन ने,
कसम उठा कर मन में ठान लिया था,
समय आने पर द्रौपदी से प्रतिकार करने को,
स्वयं से ही प्रतिबद्ध हुआ था।।
शेष भाग आगे जारी है