पहुँचना है मंजिल तक
राही
न थक तू
बढता चल
अविरल
हैं राहें लम्बी
मुश्किल हैं
डगर
अनजान हैं
पगडंडियाँ
पहचान बनाते
चल तू
रूका, होंगी
मंजिल दूर
एक एक कदम
दूर करते हैं
फासले
मुकाम होते
जाते पास
सोच मत
दिन है कि
रात
फहरायेगी जब
विजय पताका
मंजिल पर
तब होगा
तू पथिक अजय
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल