पहचान
मैं आज फिर लड़ लिया उससे
आप से मैं लड़ नही सकता
पता नही कब कौन सा मसला
खड़ा हो जाये
और बात कहाँ से कहाँ पहुंच जाए
दरअसल, मेरे और आपके बीच
पहचान की बड़ी समस्या है
आपकी और मेरी पहचान
अलग अलग सी बनती
जा रही है
सबकी एक एक होती
तो भी बात बन जाती
पर यहां हर एक की
दस बीस पहचानें हैं
काश, यहां भी सिर्फ चार की
ही इजाजत देता खुदा
सो मैं चला गया उसके पास
और झुँझला कर बोला
भाई, मेरी पहचान बता
देश या धर्म
जाति या प्रान्त
शहर या गांव
भाषा या तबका
आरक्षित- अनारक्षित
इस गली का-उस गली का
या फिर कोई सियासी झंडा?
मैं क्योँ बंट गया हूँ
इन छोटी छोटी पहचानों के बीच
और इंसान तो क्या
आधा अधूरा आदमी भी
अब नही लगता
बताओ प्रभु ये माजरा क्या है?
वो खामोश रहा
मैं जानता था वो
ऐसा ही करेगा
आजकल वो ऐसा ही
करता है
बहुत कुरेदता हूँ तो
कह देता है
तुम जानो
मुझसे क्यों पूछते हो अब
और वो उठ कर चल देता है
दोस्तों, जंगलों से तो निकल आये थे हम
पर ये जंगल अब अपने ही भीतर उग आए हैं
मुख्तलिफ पहचानों की शक्ल में
और हम फिर गुलाटियां खा रहे है
इन दरख्तों पर
कभी गौर तो किया ही होगा?