पहचान लेता हूँ उन्हें पोशीदा हिज़ाब में
शाम गुज़र तो गई नशीली शराब में,
दिन बेचैन रहेगा उन्हीं के ख़्वाब में।
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जाने क्यों, आईना सही बताता नहीं,
तलाशता हूँ अक़्स प्याला-ए-आब में।
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उनके बदन की ख़ुशबू याद है मुझे,
पहचान लेता हूँ, भीड़ में, हिज़ाब में।
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जाने कितने दौरों से गुज़री है ज़िंदगी,
मैं उलझना नहीं चाहता, हिसाब में।
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ज़ुबां-ज़ुबां पे मुकद्दर का ज़िक्र लेकिन,
नज़ीर मिलती नहीं, किसी किताब में।