पवित्र साध्य-प्रेम
” पवित्र साध्य- प्रेम ”
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रहिमन धागा प्रेम का ,मत तोड़ो चटकाय |
टूटे से फिर ना जुड़े ,जुड़े गाँठ परि जाय ||
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उक्त दोहे के माध्यम से रहीम जी ने प्रेम की पराकाष्ठा, महत्व और इसके विशाल स्वरूप को बताने का प्रयास किया है | प्रेम क्या है ? प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है ? प्रेम की महत्ता क्या है ? प्रेम की आत्मिक प्रबलता और सहजता कितनी है ? इन सभी प्रश्नों को समाहित करता हुआ ये दोहा न केवल प्रेम की गूढ़तम रहस्यात्मक अभिव्यक्ति को उजागर करता है , बल्कि प्रेम की गहन जड़ों और उसकी दार्शनिक और भावनात्मक अभिव्यक्ति को भी बताता है | प्रेम , वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है जो कि सत्व गुण से परिपूर्ण है तथा त्याग ,समर्पण, विश्वास , निष्ठा जैसे मानवीय गुणों को समाहित किए हुए है | इन्हीं गुणों के कारण प्रेम एक सशक्त मानवीय अनुभूति है ,जो हमेशा निर्मल और सुखद एहसास का अंकुर प्रस्फुटित करता है | इसलिए जरूरी है कि इस अंकुर का पोषण हम पूरी निष्ठा ,समर्पण और विश्वास के साथ करें , ताकि प्रेम जैसे पवित्र साध्य को हम प्राप्त कर सके और सहेज सकें | क्यों कि प्रेम, एहसास के नाजुक धागों से बंधा हुआ होता है ,जिन्हें त्याग , समर्पण , निष्ठा और विश्वास जैसे धागों से मजबूती मिलती है | यदि इन भावों की कमी या इनके विपरीत यथा – अविश्वास , स्वार्थ ,धोखा जैसे भावों का उद्भव होता है ,तो यह प्रेम का धागा टूट जाता है | जिस प्रकार कोई धागा टूट जाने पर उसे पुन: जोड़ने पड़ गाँठ पड़ जाती है , उसी तरह प्रेम भी एक बार टूट जाने या खत्म हो जाने पर भावों में आशंका और मलीनता आ जाती है , जो कि प्रेम जैसे पवित्र साध्य के लिए घातक है ,क्यों कि वहाँ विश्वास, समर्पण, त्याग और निष्ठा धूमिल हो जाती है | इसी धूमिलता के कारण दिल के आसमान में कोहरा छा जाता है ,जिसके पार देखना असंभव हो जाता है | अत: यह जरूरी है कि प्रेम को उसके यथार्थ और उज्ज्वल स्वरूप में बनाए रखने के लिए पवित्र साध्यों को अपनाना एक अनिवार्य और महत्वपूर्ण पक्ष है |
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— डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”