पल रहा था नयनों के भीतर….
पल रहा था नयनों के भीतर
सपना एक मधुर सलोना था……
कब तक जीता रहता यूँ ही,
हासिल न कुछ भी होना था।
एक न एक दिन तो आखिर,
उसे चिर-निद्रा में सोना था।
प्रेम-भाव पनपा था मन में,
उमंगित हो-हो इठलाता था।
पंख पसार कर नन्हे-नन्हे,
किस्मत को झुठलाता था।
जीव वो भोला जान सका न,
नियति उसकी गम ढोना था।
मन-ताल आज फिर सूखा है,
प्रेम-परिंदा अतिशय भूखा है।
कब से नेहिल बरसात हुई न,
प्रिय से जी भर बात हुई न।
कट रही रात नयनों में सूनी,
भाग्य में बिलखना, रोना था।
पाने की मन में ललक लगी,
एक पल न फिर पलक लगी।
तकते एकटक नयन-चकोर,
उचकते रह-रह उसकी ओर।
शिशु नेह का नादान बड़ा था,
चाँद को समझा खिलोना था।
किसी से उसका बैर हुआ न,
किसी के लिए वह गैर हुआ न।
उसकी नजर में सब थे अपने,
देखता सब के सुख के सपने।
बचा न क्यों वह बुरी नजर से,
माथे जब नजर-डिठोना था।
आता समझ यही रह- रहकर,
कहें आँसू भी यही लरज कर।
बंजर आस क्यों मन में पाली,
अरमानों पे चल गयी कुदाली।
लोभी क्यों मन की चाह हुई,
यह बीज न फिर से बोना था।
मन का भी कोई दोष नहीं,
उस पर भी कोई रोष नहीं।
चाहा उसे कब बाँधे रखना,
तपस्वियों-सा साधे रखना।
बहुत सालता था खालीपन,
सूना एक उसका कोना था।
अदनी सी यह चाह थी माना,
आसान न था पूरी कर पाना।
दीवाना था वो धुन में अपनी,
मुश्किल था उसको समझाना।
अपनी भूल गलती का आखिर,
अहसास तो उसको होना था !
पल रहा था नयनों के भीतर
सपना एक मधुर सलोना था……
– सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
“चाहत चकोर की” से