पल भर की खबर नहीं!
पल भर की खबर नहीं है,
ख्वाब संजोए वर्षों के,
झूठी सारी मोह माया है,
सपने बुनते हैं अपनों के!
कौन साथ में गया है किसके,
समय बिताया जिन सबने,
जब तक साथ में रह कर जीते हैं,
अपनों पर मर मिटने को तत्पर रहते हैं,
लगता तो रहा यही है सदा ही से,
बिना इनके हम कैसे जी सकते हैं!
किन्तु होता तो सदैव यही आया है,
अपना जब भी विदा हुआ है,
हमने रो धो कर, आंसू बहा कर,
उसको अपने ही हाथों से बेघर किया,
खुद ही उसकी हस्ती मिटाने को,
ले जाते हैं हम उन्हें जलाने को!
जिसे कभी थोड़ी सी भी आंच आ जाती,
रुह हमारी तब कांप जाया करती,
उसी की माटी को धू धू कर जला आते हैं,
और फिर आगे की सुधि में लग जाते हैं,
धीरे धीरे से हम फिर उसको भूल जाते हैं!
निकल पड़ते हैं हम अपने खाने कमाने में,
अपने जीवन की दिनचर्याओं को निभाने में,
यही सृष्टि का चक्र चल रहा है,
मनुष्य सपने बुनने में उलझ रहा है,
बिना किसी परिणाम को जाने,
सपनों में ही जिया जा रहा है,
पल भर की खबर नहीं है,
ख्वाब वर्षों के बुने जा रहा है!!