पलायन (जर्जर मकानों की व्यथा)
कान लगाकर सुनो, ध्यान से देखो तो,
परवश हृदय पुकारें भी कुछ कहती हैं।।
फागुन, सावन, तीज, पर्व सब नीरस हैं,
ये शीतल मंद बयारें भी कुछ कहती हैं।।
देह सजाकर आयेगी संतति मिलने,
जर्जर खड़ी दीवारें भी कुछ कहती हैं।।
कालकूट सी रैन भयावह देखी हैं,
मेघों की चीत्कारें भी कुछ कहती हैं।।
बेशक लहरें जोर लगातीं हैं लेकिन,
नाविक की पतवारें भी कुछ कहती हैं।।
देख होंसला मेरा, फिर भी जूझ रहे-
इस दिल की झंकारें भी कुछ कहती हैं।।
मेरा वक्ष चीरकर खाने को आतुर,
तन पर पड़ी दरारें भी कुछ कहती हैं।।
✍️ – नवीन जोशी ‘नवल’
(स्वरचित)