पर्वत और गिलहरी…
एक दिवस कुछ बहस छिड़ी,
पर्वत और गिलहरी में।
पर्वत विशाल था बोला,
ए तुच्छ ! किस हेकड़ी में ?
बोली गिलहरी सच कहा,
निस्संदेह तुम्हीं बड़े हो।
स्थिर होकर एक जगह,
क्यूँ अकड़े तने खड़े हो ?
राह मनोरम प्यारी-सी,
माना तुम्हीं बनाते हो।
हँसो और पर इस काबिल,
न इससे तुम हो जाते हो।
नहीं तुम्हारी-सी मैं तो,
तुम्हीं कहाँ मेरे से हो ?
मैं फुर्तीली चुस्त बड़ी,
तुम स्थिर बुत जैसे हो।
नहीं ग्लानि मुझको कोई,
अगर नहीं मैं तुम जैसी।
नहीं तनिक भी तो तुममें,
त्वरित सोच मेरे जैसी।
सिर्फ एक के होने से,
जगत न बनता-मिटता है।
टर्र-टर्र से मेंढक की,
मौसम नहीं बदलता है।
एक अकेला चना कहो,
फोड़ कभी क्या भाड़ सके?
खड़ा मूढ़मति एक जगह,
आया जोखिम ताड़ सके ?
सबको सबसे अलग करें,
कौशल सबके जुदा-जुदा।
परख हुनर हर प्राणी के,
देता सबमें बाँट खुदा।
खुश मैं लघुता में अपनी
होड़ न तुम से करती हूँ।
स्वच्छंद विचरती हर सूं,
जरा न तुम से डरती हूँ।
तुच्छ बदन पर मैं अपने,
वन यदि लाद नहीं सकती।
नट ये तोड़ दिखा दो तुम,
अधिक विवाद नहीं करती।
काम बनाए सुईं जहाँ,
तलवार पड़ी रह जाए।
समझ सको ये मर्म अगर,
किस्सा यहीं सुलझ जाए।
नियत सभी की सीमाएँ,
नियत सभी के काम यहाँ।
रचयिता अपनी सृष्टि का,
देख रहा सब बैठ वहाँ।
और अधिक क्या जिरह करूँ
मेरा-तुम्हारा जोड़ कहाँ ?
सच कहते हो भाई तुम,
मेरी तुमसे होड़ कहाँ ?
अपनी-अपनी कह दोनों,
करने अपना काम चले।
हम भी थककर चूर हुए,
करने अब आराम चले।
(आंग्ल कवि Ralph Waldo Emerson की कविता ‘The mountain and the squirrel’ का हिन्दी में भावानुवाद)
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
“बाल सुगंध” में प्रकाशित